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प्रमाण
अर्थमें शब्दोंका रहना सम्भव नहीं है और न अर्थ और शब्दका तादात्म्य सम्बन्ध ही है। ऐसी दशामें अर्थसे उत्पन्न होनेवाले ज्ञानमें ज्ञानको उत्पन्न न करनेवाले शब्दके आकारका संसर्ग कैसे रह सकता है ? क्योंकि जो जिसका जनक नहीं होता, वह उसके आकारको धारण नहीं करता । जैसे रससे उत्पन्न होनेवाला रसज्ञान अपने अजनक रूप आदिके आकारको धारण नहीं करता।
और इन्द्रिय ज्ञान केवल नील आदि अर्थसे ही उत्पन्न होता है, शब्दसे उत्पन्न नहीं होता। तब वह शब्दके आकारको धारण नहीं कर सकता। और जब वह शब्दके आकारको धारण नहीं करता, तब वह शब्दग्राही कैसे हो सकता है क्योंकि बौद्ध मतके अनुसार जो ज्ञान जिसके आकार नहीं होता वह उसका ग्राहक नहीं होता। अत: जो ज्ञान अर्थसे संसृष्ट शब्दको वाचकरूपसे ग्रहण करता है, वही सविकल्पक है, अन्य नहीं । यह बात प्रत्यक्ष ज्ञानमें सम्भव नहीं है, अतः निर्विकल्पक प्रत्यक्ष ही प्रमाण है।
शंका-यदि प्रत्यक्ष निर्विकल्पक है, तो उससे लोक-व्यवहार कैसे चल सकता है ? विचारक पुरुष प्रत्यक्षसे यह निश्चय करता है कि अमुक वस्तु सुखका कारण है और अमुक दुःखका कारण है, तभी वह उनमें से एकको छोड़ता है और दूसरीको ग्रहण करता है।
उत्तर-निविकल्पक ज्ञानमें सविकल्पक ज्ञानको उत्पन्न करनेकी शक्ति है अतः वह उसके द्वारा समस्त व्यवहारोंमें कारण होता है। आशय यह है कि यद्यपि प्रत्यक्ष कल्पना रहित है फिर भी वह सजातीय और विजातीय पदार्थोंसे भिन्न अग्नि आदिको विषय करता हुआ ही उत्पन्न होता है। और चूँकि वह नियत रूप वस्तुको ग्रहण करता है और विजातीय वस्तुओंसे भिन्न वस्तुके आकारका अनुगामी होता है; अतः वह उसी वस्तु विधि और निषेधका आविर्भाव करता है-यह अग्नि है, फूल वगैरह नहीं है। निर्विकल्पक प्रत्यक्षके अनन्तर होनेवाले ये दोनों विकल्प परम्परासे वस्तुसे सम्बद्ध होनेके कारण यद्यपि अविसंवादी हैं-इनमें कोई विसंवाद नहीं है, फिर भी ये प्रमाण नहीं हैं। क्योंकि ये विकल्प दृश्य और विकल्प्यमें एकत्वाध्यवसाय होनेसे होते है। अतः ये वस्तुके जाने हुए रूपको ही जानते हैं । आशय यह है-निर्विकल्पक प्रत्यक्षके विषयको लेकर ही पीछेसे विकल्प उत्पन्न होते हैं । अत: विकल्पका विषय कोई नवीन नहीं होता तथा ज्ञाता भ्रमवश निर्विकल्प प्रत्यक्षके विषय दृश्यको और
१. तत्त्वसं०, पृ० ३६० ।
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