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________________ ६४ जैन न्याय करेगी। यदि ज्ञातृव्यापार भावरूप है तो नित्य है या अनित्य । अनित्य तो हो नहीं सकता क्योंकि जो अजन्य है और भावरूप है उसके अनित्य होनेमें विरोध है। यदि वह नित्य है तो सबको सब पदार्थों का ज्ञान होनेका प्रसंग आयेगा और ज्ञातृव्यापारको उत्पत्तिके लिए प्रदीप आदि कारकोंको खोजना व्यर्थ होगा । यदि ज्ञातृव्यापार कारकोंसे जन्य है तो क्रियारूप है या अक्रियारूप है ? यदि क्रियारूप है तो व्यापक आत्मा हलन चलनरूप क्रियाका आश्रय नहीं हो सकता; क्योंकि मीमांसक आत्माको व्यापक मानता है। यदि वह अक्रियारूप है तो ज्ञानरूप है या अज्ञानरूप ? यदि वह ज्ञानरूप है तो अत्यन्त परोक्ष नहीं हो सकता, जैसा कि मीमांसक मानता है। और यदि अज्ञानरूप है तो घट-पटकी तरह प्रमाण नहीं हो सकता; क्योंकि जो अज्ञानरूप है वह प्रमाण नहीं हो सकता। इस तरह विचार करनेसे ज्ञातृव्यापारको प्रमाण मानना समुचित प्रतीत नहीं होता। ५. निर्विकल्पक ज्ञान पूर्वपक्ष-बौद्ध भी जनोंको तरह ज्ञानको ही प्रमाण मानते हैं; किन्तु ज्ञानके दो भेद है-निर्विकल्पक और सविकल्पक । बौद्ध मतमें प्रत्यक्षरूप ज्ञान निर्विकल्पक होता है और अनुमानरूप ज्ञान सविकल्पक। ये दो ही प्रमाण बौद्ध दर्शनमें माने गये हैं। क्योंकि बौद्ध मतानुसार विषय दो प्रकारका होता हैएक स्वलक्षण रूप और दूसरा सामान्य लक्षण रूप । स्वलक्षणका अर्थ है वस्तुका स्व-रूप, जो शब्द आदिके बिना ही ग्रहण किया जाता है। सामान्य लक्षणका अर्थ है-अनेक वस्तुओंके साथ गृहीत वस्तुका सामान्य रूप । इसमें शब्दका प्रयोग होता है। स्वलक्षण प्रत्यक्ष का विषय है और सामान्य लक्षण अनुमानका विषय है। जो कल्पनासे रहित निर्धान्त ज्ञान होता है उसे बौद्ध दर्शन में प्रत्यक्ष कहते हैं। और अभिलाप अर्थात् शब्द विशिष्ट प्रतीतिको कल्पना कहते हैं । बौद्धका कहना है कि प्रत्यक्षमें शब्दसंसृष्ट अर्थका ग्रहण सम्भव नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्षका विषय स्वलक्षण है और वह क्षणिक है। जब हम उसे कोई नाम देते हैं तबतक वह हमारे सामनेसे विलीन हो जाता है। और उसके विलीन हो जानेपर जब हम उसे अमुक नामसे पुकारते हैं तो उस समय वह अर्थ वर्तमान नहीं होता। अतः प्रत्यक्ष शब्द विशिष्ट अर्थको ग्रहण नहीं करता। तब वह सविकल्पक कैसे हो सकता है। १. न्या० कु. च० पृ० ४६ । २. न्यायबि० पृ० ११ । ३. न्यायबि० पृ० १३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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