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________________ प्रमाण ५५ कहीं-कहीं सन्निकर्षके होनेपर भी ज्ञान नहीं होता। जैसे, घटकी तरह आकाश आदिके साथ भी चक्षुका संयोग रहता है, फिर भी आकाशका ज्ञान नहीं होता। अतः जो जहाँ बिना किसी व्यवधानके कार्य करता है, वही वहाँ साधकतम होता है, जैसे घर में रखे हए पदार्थों को प्रकाशित करने में दीपक । एक ज्ञान ही ऐसा है जो बिना किसी व्यवधानके अपने विषयका ज्ञान कराता है। अतः वही प्रमितिमें साधकतम है, और इसलिए वही प्रमाण है, सन्निकर्ष नहीं। सन्निकर्षवादियोंकी ओरसे इसका यह समाधान दिया जाता है कि चक्षु सन्निकर्षमें घटादिका ज्ञान करानेको योग्यता है, आकाश आदिका ज्ञान करानेकी योग्यता नहीं है। इसलिए वह आकाश आदिका ज्ञान नहीं कराता । जैन कहेंगेतो फिर योग्यताको हो साधकतम मानो। किन्तु यह सन्निकर्षकी योग्यता है क्या वस्तु ? विशिष्ट शक्तिका नाम हो योग्यता है। तो वह सन्निकर्षके सहकारियोंकी निकटता कहलायो, क्योंकि उद्योतकरने 'सहकारियोंकी निकटताको हो शक्ति बतलाया है । अब प्रश्न यह होता है कि सन्निकर्षके सहकारी कारण द्रव्य हैं, गुण है, अयवा कर्म है ? आत्म-द्रव्य तो सहकारी कारण हो नहीं सकता; क्योंकि आकाश और चक्षुके सन्निकर्षके समय आत्मा मौजूद रहता है फिर भी ज्ञान नहीं होता। इसी तरह काल, दिशा आदि भी सन्निकर्षके सहकारी कारण नहीं हो सकते, क्योंकि आकाश और चक्षुके सन्निकर्षके समय वे भी मौजूद रहते हैं, फिर भी आकाशका ज्ञान नहीं होता। मन भी सन्निकर्षका सहायक नहीं हो सकता; क्योंकि चक्षु और आकाशके सन्निकर्षके समय पुरुषका मन उस ओर हो तब भी आकाशका ज्ञान नहीं होता। अतः यह कहना ठीक नहीं है कि आत्मा मन इन्द्रिय और अर्थ इन चारोंका सन्निकर्ष अर्थका ज्ञान कराने में साधकतम है; क्योंकि यह सब सामग्री आकाशके साथ सन्निकर्षके समय मौजूद रहती है। यदि कहा जाये कि तेज द्रव्य प्रकाश सन्निकर्षका सहायक है, क्योंकि उसके होनेपर ही आंखोंसे ज्ञान होता है तो भी ठीक नहीं, क्योंकि घरको तरह आकाशके साथ सन्निकर्षके समय प्रकाशके रहते हुए भी आकाशका ज्ञान नहीं होता। यदि अदृष्ट गुणको सहायक माना जायेगा तो भी कभी-न-कभी आकाशका चक्षुसे ज्ञान होनेका प्रसंग उपस्थित होगा, क्योंकि सहकारी अदृष्ट आकाश और चक्षु सन्निकर्षके समय भी वर्तमान रहता है। इसी तरह कर्मको सन्निकर्षका सहकारी माननेसे भी वही दोष आता है; क्योंकि आकाश और इन्द्रियके सन्निकर्षके समय भी चक्षुका उन्मीलन-निमीलन कर्म जारी रहता है। अतः सहकारी कारणोंकी सहायता रूप शक्ति अर्थका ज्ञान कराने में साधक नहीं है, किन्तु ज्ञाताकी अर्थको ग्रहण कर सकनेकी शक्ति या योग्यता ही वस्तुका ज्ञान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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