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________________ जैन न्याय करानेमें साधकतम है। सन्निकर्षवादीका तर्क हो सकता है कि यदि अर्थका ज्ञान करानेमें साधकतम होनेसे योग्यताको ही जैन प्रमाण मानते हैं तो ज्ञानके प्रमाण होनेकी बात तो छुट हो जाती है। जैन कहेंगे-स्व और अर्थको ग्रहण करनेको शक्तिका नाम योग्यता है। वह योग्यता स्व और अर्थको जाननेवाले ज्ञानरूप प्रमाणकी सामग्री होनेसे प्रमाणकी उत्पत्तिमें ही साधकतम है। अर्थात् उक्त योग्यता स्वयं प्रमाण नहीं है, किन्तु प्रमाणको उत्पन्न करती है, प्रमाण तो ज्ञान ही है, किन्तु ज्ञानकी उत्पत्ति तभी होती है जब ज्ञातामें उस अर्थको ग्रहण करनेको शक्ति होती है। अत: शक्तिरूप योग्यता ज्ञानोत्पत्तिमें साधकतम है और ज्ञान स्त्र और अर्थको परिच्छित्ति कराने में साधकतर है । अतः ज्ञान ही प्रमाण है । चक्षुका अप्राप्यकारित्व चक्षु अपने विषयको छूकर नहीं जानती। यदि छूकर जानती होती तो आँख में लगे अंजनको भी जान लेती। किन्तु दर्पणमें देखे बिना अंजनका ज्ञान नहीं होता अतः वह अप्राप्यकारी है। चक्षुको प्राप्यकारी सिद्ध करने के लिए कहा जाता है कि चक्षु ढकी हुई वस्तुको नहीं देख सकती; इसलिए प्राप्यकारी है । वस्तुत: यह कथन उचित नहीं है। काँच, अभ्रक और स्फटिकसे ढके हए पदार्थों को भी चक्षु देख लेती है । चुम्बक दूरसे हो लोहेको खींच लेता है। फिर भी वह किसी चीज़ से ढके हुए लोहेको नहीं खींचता। इसलिए जो ढकी हुई वस्तुको ग्रहण न कर सके वह प्राप्यकारी होता है, ऐसा नियम बनाना ठीक नहीं है। शंका-यदि चक्ष अप्राप्यकारी है तो उसे अतिदूरवर्ती और ओटमें रखी हुई वस्तुको भी जान लेना चाहिए। उत्तर-यह आपत्ति तो चुम्बक पत्थरके दृष्टान्तसे ही खण्डित हो जाती है। चुम्बक लोहेसे दूर रहकर ही लोहेको अपनी ओर खींचता है, फिर भी न वह अतिदूरवर्ती लोहेको खींचता है और न किसी वस्तुके बीच में आ जानेपर ही लोहेको खींचता है। शंका-यदि चक्षु दूरसे ही वस्तुको ग्रहण कर लेती है तो फिर किसी वस्तु में संशय या विपरीत ग्रहण क्यों होता है ? उत्तर-यह आपत्ति तो चक्षको प्राप्यकारी मानने में हो विशेष रूपसे आती है। क्योंकि जब चक्षु पदार्थके पास जाकर उसे जानती है तब तो संशयको या विपरीत ग्रहणको कोई स्थान ही नहीं रहता। १.त०रा०वा० पृ० ४८ । न्या०कु०च०, पृ० ७५-८२ । प्रमेयक० मा०, पृ० २२०-२२६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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