SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 69
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन न्याय ५४ है कि जो पदार्थ दृष्टिसे ओझल होते हैं, उनका ज्ञान नहीं होता । ૨ दूसरी बात यह है कि इन्द्रिय कारक है, और कारक दूर रहकर अपना काम नहीं कर सकता । अतः हमारा कहना है कि इन्द्रिय जिस पदार्थ से सम्बन्ध नहीं करती उसे नहीं जानती, क्योंकि वह कारक है, जैसे बढ़ईका बसूला लकड़ी से दूर रहकर अपना काम नहीं करता । सब जानते हैं कि स्पर्शन इन्द्रिय पदार्थको छूकर ही जानती है, बिना छुए नहीं जानती । यही बात अन्य इन्द्रियोंके विषयमें भी समझ लेनी चाहिए । वह सन्निकर्ष छह प्रकार का है - संयोग, संयुक्तसमवाय, संयुक्त समवेत समवाय, समवाय, समवेत समवाय, और विशेषणविशेष्यभाव । चक्षुका घट आदि पदार्थों के साथ संयोग सन्निकर्ष है, घट आदि में समवाय सम्बन्धसे रहनेवाले गुण, कर्म आदि पदार्थों के साथ संयुक्त समवाय सन्निकर्ष है; क्योंकि चक्षुका घटके साथ संयोग सम्बन्ध है और उस घट में समवाय सम्बन्धसे गुण कर्म आदि रहते हैं, तथा घट में समवाय सम्बन्धसे रहनेवाले गुण कर्म आदिमें समवाय सम्बन्धसे रहनेवाले गुणत्व, कर्मत्व आदिके साथ संयुक्त समवेत समवाय सन्निकर्ष है । इसी तरह श्रोत्रका शब्द के साथ समवाय सन्निकर्ष है; क्योंकि कानके छिद्र में रहनेवाले आकाशका ही नाम श्रोत्र है और आकाशका गुण होनेसे शब्द वहाँ समवाय सम्बन्धसे रहता है । शब्दत्व के साथ समवेत समवाय सन्निकर्ष है । 'इस घर में घटका अभाव है' यहाँ घटाभाव के साथ विशेषणविशेष्यभाव सन्निकर्ष है; क्योंकि चक्षुसे संयुक्त घरका विशेषण घटाभाव है । प्रत्यक्ष ज्ञान चार, तीन अथवा दोके सन्निकर्षसे उत्पन्न होता है । बाह्य रूप आदिका प्रत्यक्ष चारके सन्निकर्षसे होता है - आत्मा मनसे सम्बन्ध करता है, मन इन्द्रियसे और इन्द्रिय अर्थसे । सुखादिका प्रत्यक्ष तीनके सन्निकर्षसे होता है; क्योंकि उसमें चक्षु आदि इन्द्रियाँ काम नहीं करतीं । योगियों को जो आत्माका प्रत्यक्ष होता है, वह केवल आत्मा और मनके सन्निकर्षसे ही होता है । अतः सन्निकर्ष को ही प्रमाण मानना चाहिए । उत्तरपक्ष—जैनों का कहना है कि वस्तुका ज्ञान कराने में सन्निकर्ष साधकतम नहीं है, इसलिए वह प्रमाण भी नहीं है। जिसके होनेपर ज्ञान हो और नहीं होनेपर न हो, वह उसमें साधकतम माना जाता है; किन्तु सन्निकर्ष में यह बात नहीं है; १. न्याय भा०, पृ० २५५ । २. न्यायमं० पृ० ७३ तथा ४७६ । ३. न्याय वा० पृ० ३१ । न्यायमं० पृ० ७२ । ४. न्यायमं०, पृ० ७४ । ५. न्या० कु०, पृ० २५-३२ । प्रमेयक० मा०, पृ० १४-१८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy