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प्रमाण
'अपूर्व' जैसे पदको स्थान नहीं दिया। इतना ही नहीं, बल्कि उन्होंने स्पष्ट रूपसे यह कह दिया कि गृहीतग्राही ज्ञान भी अगृहीतग्राहीके समान ही प्रमाण है।
श्वेताम्बराचार्य हेमचन्द्र सूरिने तो अपनी प्रमाणमीमांसा एक सूत्रके द्वारा ग्रहीष्यमाण ग्राही की तरह ही ग्रहीतग्राहीको भी प्रमाण माना है। उनका कहना है कि 'द्रव्यकी अपेक्षासे गृहीतग्राहित्वके प्रामाण्यका निषेध करते हैं अथवा पर्यायकी अपेक्षासे ? पर्यायकी अपेक्षासे तो धारावाही ज्ञान भी गृहीतग्राही नहीं है, क्योंकि पर्याय क्षणिक होती है । अतः उसका निराकरण करने के लिए प्रमाणके लक्षणमें 'अपर्व' पद देना व्यर्थ है। यदि द्रव्यकी अपेक्षा गृहीतग्राहीको प्रमाण नहीं मानते तो यह पक्ष भी युक्त नहीं है। द्रव्य नित्य होता है अतः ग्रहीष्यमाण और गृहीत अवस्थाओं में द्रव्यकी अपेक्षा कोई भेद नहीं हो सकता। ऐसी स्थितिमें ग्रहीष्यमाण ग्राहीको प्रमाण मानना और गृहीतग्राहीको प्रमाण न मानना कैसे संगत है ? तथा जैनदर्शन में गृहोतग्राही होनेपर भी अवग्रह, ईहा आदिको प्रमाण माना गया है। शायद कहा जाये कि उनका विषय भिन्न-भिन्न है, किन्तु ऐसा कहना भी उचित नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेसे अवग्रहसे गृहीत पदार्थमें ईहा ज्ञान नहीं होगा, और ईहासे गृहीत पदार्थका अवायज्ञान नहीं होगा । शायद कहा जाये कि पर्यायको अपेक्षासे अवग्रह आदि ज्ञान अनधिगतको ही जानते हैं, अतः वे अपूर्वग्राही ही हैं, किन्तु इस तरहसे तो कोई भी ज्ञान गृहीतग्राही नहीं है, क्योंकि पर्याय तो प्रतिसमय बदलती रहती हैं।'
इस तरह प्रमाणके विषय में अपूर्व पदको लेकर जैनदर्शनमें थोड़ा-सा मतभेद है। किन्तु प्रमाण अर्थका और 'स्व' का निश्चायक होता है इसमें कोई मतभेद नहीं है। दर्शनान्तर सम्मत प्रमाण लक्षण और उनकी समीक्षा
१. सन्निकर्षवाद पूर्वपक्ष-सन्निकर्षवादी नैयायिकोंका कहना है कि अर्थका ज्ञान करानेमें सबसे अधिक साधक सन्निकर्ष है। सब जानते हैं कि चक्षुका घटके साथ संयोग होनेपर ही घटका ज्ञान होता है । जिस अर्थका इन्द्रियके साथ सन्निकर्ष नहीं होता, उसका ज्ञान भी नहीं होता। यदि इन्द्रियोंसे असन्निकृष्ट अर्थका भी ज्ञान माना जायेगा तो सबको सब पदार्थों का ज्ञान होना चाहिए। किन्तु देखा जाता
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