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________________ ५२ जैन न्याय को दीपक तत्काल ही प्रकाशित कर देता है, फिर भी बादको भी वह प्रकाशक ही कहा जाता है। अर्थात् प्रकाशित पदार्थों को ही प्रकाशित करते रहनेसे दीपक अप्रकाशक नहीं कहा जाता, किन्तु प्रकाशक ही कहा जाता है, क्योंकि उस दीपकसे ही उन पदार्थों की अवस्थितिका बोध होता रहता है। इसी तरह ज्ञान भी उत्पन्न होते ही घटादि पदार्थों का अवभासक होकर प्रमाणपनेको प्राप्त करके बादको भी 'प्रमाण' इस नामको छोड़ नहीं देता।"शायद कहा जाये कि प्रतिक्षण दीपक अन्य-अन्य होता है अत: वह अपूर्व-अपूर्व अर्थका ही प्रकाशक है, तो ज्ञान भी दीपककी तरह प्रतिक्षण बदलता है, अत: 'अपूर्वाधिगम लक्षण' उसमें भी मौजूद है। अतः यह कहना खण्डित हो जाता है कि स्मृतिकी तरह पहले जाने हुए पदार्थको पुन:-पुन जाननेवाला ज्ञान अप्रमाण है।' अकलंकके अनुगामी विद्यानन्द तथा माणिक्यनन्दिके परीक्षामुख सूत्रग्रन्थके टोकाकार आचार्य प्रभाचन्द्रके टोकाग्रन्योंके देखनेसे भी उक्त नतीजेपर पहँचना पड़ता है। ऊपर जो दूसरी विचारधारा दी गयी है, वह आचार्य विद्यानन्दके तत्वार्थश्लोकवातिकसे दी गयी है। उसमें उन्होंने स्पष्ट रूपसे 'अपर्व' पदको निरर्थक बतलाया है । तथा प्रभाचन्द्र ने परीक्षामुखके 'दृष्टोऽपि समारोपात्ताहक' इस सूत्रका व्याख्यान करते हुए लिखा है कि-'अनधिगत अर्थका जानना ही प्रमाणका लक्षण नहीं है। यदि भट्ट अकलंक अनधिगत अर्थके ज्ञाता ज्ञानको ही प्रमाण मानते होते तो उनके अनुयायो विद्यानन्द तथा प्रभाचन्द्र इस तरहसे उनके विरुद्ध न जाते । वे जानते थे कि अनेकान्तवादो अकलंक देवकी दृष्टि इस विषयमें भी एकान्तवादी नहीं है । अतः विद्यानन्दने अपूर्व पदको व्यर्थ बतलाया और प्रभाचन्द्रने सर्वथा अनधिगत अर्थ जाननेवाले ज्ञानको प्रमाण मानना अस्वीकृत कर दिया। बौद्ध और मीमांसक स्मृतिको स्वतन्त्र प्रमाण नहीं मानते । अतः उनके मतमें तो अनधिगत और अपूर्व पदका प्रयोजन स्पष्ट है। किन्तु जैन परम्परामें तो स्मृतिको स्वतन्त्र प्रमाण माना गया है। अत: अनधिगत या अपूर्व पदका वह प्रयोजन जैन परम्परामें नहीं है। इसीसे माणिक्यनन्दिके द्वारा प्रमाणके लक्षणमें जो 'अपर्व' पद प्रविष्ट किया गया, दिगम्बर परम्परामें उसे समर्थन प्राप्त नहीं हुआ। और श्वेताम्बर' परम्पराके तो सभी विद्वान् एक मतसे धारावाही ज्ञानको प्रमाण माननेके ही पक्ष में हैं । अतः किसीने भो प्रमाणके लक्षणमें 'अनधिगत' और १. प्रमाणमीमांसाके भाषा टिप्पण पृ० १२-१३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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