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________________ प्रमाण ५१ जनोंका कहना है कि धारावाहिक ज्ञानोंमें भी उत्तरोत्तर जो कालभेद है वह अगृहीत है, उसका ग्रहण होनेसे उनका प्रामाण्य युक्त ही है। किन्तु प्रभाकर मतानुयायी क्षणभेद माने बिना ही उन्हें प्रमाण मानते हैं। इस भेदका कारण यह है कि भाट्टोंने प्रमाणके लक्षगमें 'अपूर्व' पदको स्थान दिया है, जब कि प्राभाकर अनुभूति मात्रको ही प्रमाण मानते हैं । __ जैन दार्शनिकोंमें भी धारावाहिक ज्ञानोंके प्रामाण्य और अप्रामाण्यको लेकर दो विचारधाराएँ पायी जाती हैं । एक विचारधाराके अनुसार चूंकि अनधिगत अथवा अपूर्व अर्थका ग्राही ज्ञान प्रमाण है, अतः धारावाहिक ज्ञान प्रमाण नहीं है, किन्तु अनधिगत अथवा अपूर्वसे सर्वथा अनधिगत या सर्वथा अपूर्व नहीं लेना चाहिए। किन्तु कथंचित् लेना चाहिए। अत: प्रथम ज्ञानसे जाने हुए पदार्थमें प्रवृत्त हुआ उत्तर ज्ञान यदि उससे कुछ विशेष जानता है तो वह प्रमाण हो है। दूसरी विचारधाराके अनुसार 'स्वार्थ व्यवसायात्मज्ञान प्रमाण है' इतने लक्षणमें ही सब बातें आ जाती हैं । अतः इसमें 'अपूर्व' विशेषण लगाना व्यर्थ है। धारावाहिक ज्ञान गृहीतग्राही हो अथवा अगृहीतग्राही हो यदि वह 'स्वार्थ' का निश्चायक है तो प्रमाण है । "यदि गृहीतग्राही होने से स्मृति प्रमाण नहीं है तो धारावाहिक ज्ञान भी प्रमाण नहीं हो सकता। जैन दर्शन में पहली विचारधाराके प्रवर्तक भट्ट अकलंकदेव हो प्रतीत होते हैं और यह विचारधारा बौद्ध दर्शनसे जैन दर्शन में प्रविष्ट हुई जान पड़ती है । अकलंकदेवको यह सरणि रही है कि उन्होंने अन्य दर्शनोंके मन्तव्योंकी ऐकान्तिकताको समीक्षा करके और उसमें अनेकान्तवादका पुट देकर उन्हें अपने अनुकूल बनानेका प्रयत्न भी किया है। उनके तत्त्वार्थवार्तिकका अवलोकन करनेसे पद-पदपर उक्त सरणिके दर्शन होते हैं। अत: बौद्ध दर्शनके 'अनधिगतार्थाधिगम लक्षण' से एकान्तवादको हटाकर उसमें अनेकान्तवादको घटित किया है। अन्यथा अकलंकदेव भो अपूर्वार्थग्राही ज्ञानको प्रमाण मानने के पक्षपाती नहीं हैं; क्योंकि उन्होंने तत्त्वार्थवातिकमें उसका खण्डन करते हुए लिखा है-'प्रमाणका लक्षण 'अपूर्वाधिगम' ठीक नहीं है, क्योंकि जैसे अन्धकारमें रखे हुए पदार्थों१. तत्स्वार्थव्यवसायात्मज्ञानं मानमितीयता। लक्षणेन मतार्थत्वाद् व्यर्थमन्यद्विशेषणम् ॥७॥ गृहोतमगृहीतं वा स्वार्थ यदि व्यवस्यति । तन्न लोके न शास्त्रेषु विजहाति प्रमाणताम् ॥७८॥ - तत्त्वार्थश्लो० १-१० । २. अपूर्वाधिगमलक्षणानुपपत्तिश्च सर्वस्य ज्ञानस्य प्रमाणत्वोपपत्तः ॥१२॥ -तत्त्वार्थ०-१-१२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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