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- जैन न्याय
शङ्का-निश्चित विषयका निश्चय करनेसे क्या लाभ है। यह तो नासमझी की निशानी है ?
उत्तर-यह ठीक नहीं, बार-बार निश्चय करनेसे यह ज्ञात होता है कि वस्तु सुख आदिमें कहांतक सहायक हो सकती है। प्रथम ज्ञानसे तो वस्तु मात्रका निश्चय होता है। फिर यह 'सुखकी साधक है' ऐसा निश्चय होने पर उसे ग्रहण करते हैं या 'दुःखको साधक है' ऐसा निश्चय होनेपर उसे छोड़ देते हैं । यदि बार-बार निश्चय न किया जाये तो त्याज्य वस्तुका ग्रहण और ग्राह्य वस्तुका त्याग नहीं किया जा सकता है। हाँ, किन्हीं पुरुषोंको अभ्यास वश वस्तुको एक बार देखने से ही इस बात का निश्चय हो जाता है कि यह वस्तु ग्रहण करने योग्य है या छोड़ने योग्य है । अत: एक ही वस्तुको विषय करनेवाले आगम प्रमाण, अनुमान प्रमाण और प्रत्यक्ष प्रमाणका प्रामाण्य भी समुचित ही है। क्योंकि तीनों प्रमाणोंके जानने में एक दूसरे से विशेषता रहती है। जैसे, शब्दके द्वारा अग्निका सामान्य ज्ञान होता है। अनुमानसे किसी नियत देशवर्ती अग्निका ज्ञान होता है । और प्रत्यक्षसे उसका रूप रंग आकार वगैरह ज्ञात हो जाता है । अतः भाट्टने जो प्रमाणका लक्षण कहा है वह ठीक नहीं है । उसने कहा है___ "तत्रापूर्वार्थविज्ञानं निश्चितं बाधवर्जितम् ।
अदुष्टकारणारब्धं प्रमाणं लोकसम्मतम् ॥" -यदि अपूर्वार्थका ज्ञान प्रमाण है तो तैमिरिक रोगीको आकाशमें एकके दो चन्द्रमा दिखाई देते हैं जो कभी किसीको दिखाई नहीं देते । अत: वह भी प्रमाण कहा जायेगा । अतः कथंचित् अपूर्वार्थग्राही ज्ञानको ही प्रमाण मानना चाहिए। ___ इस तरह आचार्य प्रभाचन्द्रने अकलंकदेवकी सरणिका ही अनुसरण करके कथंचित् अपूर्वार्थग्राही ज्ञानके प्रामाण्यका समर्थन किया है और सर्वथा अपूर्वार्थग्राहित्वका खण्डन किया है। यहाँ यह बतला देना अनुचित न होगा कि 'अनधिगत' और 'अपूर्व' पद समानार्थक हैं । और बौद्ध तथा मीमांसकोंने अनधिगतार्थग्राही या अपूर्थिग्राही विज्ञानको प्रमाण माना है। किन्तु बौद्ध धारावाही ज्ञानको प्रमाण नहीं मानते, जब कि मोमांसकको प्रभाकरीय और कुमारिलीय दोनों परम्पराएँ धारावाहिक ज्ञानको प्रमाण मानती हैं किन्तु दोनों परम्पराओंने उसका समर्थन भिन्न-भिन्न प्रकारसे किया है। एक ही घटमें प्रथम ज्ञानसे ही घटविषयक अज्ञान दूर हो जानेपर फिर 'यह घट है, यह घट है' इस प्रकार लगातार उत्पन्न होनेवाले उत्तर ज्ञानोंको धारावाहिक ज्ञान कहते हैं। भाट्टमतानुयायी
१. प्रमा० मी० का भाषा टिप्पण, पृ० १२ ।
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