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प्रमाण
से निश्चित अग्निके विषयमें होनेवाली साध्य और साधनके सम्बन्धको स्मृति प्रमाण नहीं है, वैसे ही पूर्व निश्चित अर्थ मात्रकी स्मृति भी जाने हुए अर्थको ही जाननेके कारण प्रमाण नहीं है। किन्तु यदि वह स्मृति पूर्व निश्चित अर्थ मात्रका स्मरण न करके उसके विषयमें विशिष्ट ज्ञान उत्पन्न कराती है तो वह प्रमाण है ( क्योंकि वह दृष्ट वस्तुके भी अनिश्चित अंशका निश्चय कराती है।)
इस तरह अकलंक देवके अभिप्रायके अनुसार भी जो ज्ञान अनधिगत अर्थका ग्राही है या अधिगत अर्थके भी अनधिगत अंशका निर्णय कराता है, प्रमाण है। यही बात परीक्षामुखमैं माणिक्यनन्दिने कही है। अतः 'अपूर्वार्थ' विशेषण माणिक्यनन्दिका स्त्रोपज्ञ नहीं है, किन्तु यह भी अकलंकदेवकी ही देन है।
इतना स्पष्टीकरण करनेके बाद हम पुनः परीक्षामुखके व्याख्याकार प्रभाचन्द्राचार्यको ओर आते हैं।
प्रभाचन्द 'दृष्टोऽपि समारोपात्ताहक' इस सूत्रको व्याख्या करते हुए कहते हैं। 'अनधिगत अर्थको जानना ही प्रमाणका लक्षण नहीं है, क्योंकि वस्तु अधिगत हो या अनधिगत हो, यदि वह उसको निर्दोषरूप से जानता है तो वह दोषी नहीं है। शायद कोई पूछे कि जाने हुए अर्थमें ज्ञान क्या करता है जो उसे प्रमाण माना जाये ? इसका उत्तर है कि विशिष्ट ज्ञानका जनक होनेसे उसे प्रमाण माना जाता है। जहाँ वह विशिष्ट जानकारी नहीं कराता वहाँ वह अप्रमाण है । यदि सर्वथा अनधिगत अर्थ के अधिगन्ता (ज्ञाता) को ही प्रमाण माना जायेगा तो प्रमाणके प्रामाण्यका निश्चय करना भी शक्य न होगा; क्योंकि ज्ञानने जिस रूप अर्थको जाना यदि उसी रूप अर्थ होता है तो वह ज्ञान प्रमाण कहा जाता है। और इसका निर्णय संवादज्ञानसे होता है। वह संवादज्ञान उस अर्थके ज्ञानके पश्चात् होता है । अब यदि अनधिगत अर्थ के अधिगन्ताको ही प्रमाण माना जाता तो संवादज्ञान प्रमाण नहीं रहा, क्योंकि वह तो पूर्वज्ञानसे गृहीत अर्थका ही ग्रहण करता है । और जब वह स्वयं अप्रमाण ठहरता है तो उससे प्रथम ज्ञानका प्रामाण्य कैसे स्थापित किया जा सकता है ? जब सामान्य और विशेषका तादात्म्य सम्बन्ध माना गया है तो प्रमाण सर्वथा अनधिगत अर्थका ग्राही हो कैसे सकता है, क्योंकि वस्तुमें इस समय जो अस्तित्व है ( द्रव्य दृष्टिसे ) वह पूर्व अस्तित्वसे अभिन्न है और पूर्व अस्तित्वको पहले ही जान लिया है। हाँ, यदि कथंचित् अनधिगत अर्थके ग्राही ज्ञानको प्रमाण मानते हैं तो कोई आपत्ति खड़ी नहीं होती।
१. ब्रैकेटके अन्तर्गत अष्ट श० के व्याख्याकार विद्यानन्दिके शब्दोंका भाव है। ले। २. 'तत्र अनधिगतार्थाधिगन्तृत्वमेव प्रमाणस्य लक्षणम्' । प्रमेयक० पृ० ५६ ।
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