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________________ ४ जैन न्याय अनुमानसे जानकर यदि प्रत्यक्षसे जानें तो प्रत्यक्ष अप्रमाण कहलायेगा क्योंकि उसने अनुमानसे ज्ञात अग्निको ही पुनः जाना। इसका समाधान करते हुए आचार्य प्रभाचन्द्र ने कहा है कि यदि जाने हुए अर्थको पुन: जाननेवाला दूसरा प्रमाण पहलेसे कुछ विशेष जानता है, तो वह प्रमाण ही है; क्योंकि वह भी अपूर्व अर्थको विषय करता है । जैसे अनुमानसे अग्निका सामान्य बोध होता है और प्रत्यक्षसे विशेषरूपसे बोध होता है। अकलंकदेवने भी प्रमाणको 'अनधिगतार्थग्राही' लिखा है। अपनी अष्टशतीमें' उन्होंने लिखा है कि अविसंवादी ज्ञान प्रमाण है, क्योंकि प्रमाणका लक्षण 'अनधिगत अर्थका अधिगम' है, अर्थात् अज्ञात अर्थका निश्चय करनेवाला ज्ञान हो प्रमाण है । अतः यह निश्चित है कि परीक्षामुखके कर्ता आचार्य माणिक्यनन्दिने अकलंकके इस लक्षणको दृष्टिमें रखकर ही अपने प्रमाणके लक्षणमें 'अपूर्व' पदका समावेश किया है, क्योंकि माणिक्यनन्दिने अपूर्वको परिभाषा 'अनिश्चित' को है। और 'अनधिगत' तथा 'अनिश्चित' समानार्थक हैं। फिर उन्होंने संशय आदि होनेसे ज्ञातको भी 'अपूर्वार्थ' ही बतलाया है। उधर अकलंकदेवने अविसंवादी ज्ञानको प्रमाण माना है । अत: जिसमें विसंवाद है-संशय आदि समारोप है वह अपूर्वार्थ ही है और विसंवादको जो दूर करता है, वह प्रमाण है। आगे अकलंकदेवने बौद्धोंके प्रति सविकल्पक ज्ञानको प्रमाण सिद्ध करते हुए लिखा है-यदि अनधिगत अर्थका ग्राहक न होनेसे आप ( बौद्ध ) सवि. कल्पकको अप्रमाण मानते हों, तो अनुमान भी प्रमाण नहीं हो सकता; क्योंकि वह भी अनधिगत अर्थका ग्राही नहीं है। यदि अनधिगत स्वलक्षण रूप अर्थका अध्यवसाय करनेसे अनुमानको विशिष्ट मानते हैं तो सविकल्पकके प्रामाण्यका भी निषेध नहीं करना चाहिए क्योंकि वह भी निर्विकल्पक प्रत्यक्षके द्वारा अनिर्णीत नीलादिका निर्णय करता है। इसपर बौद्धने यह आशंका की कि इस प्रकारसे तो पूर्व निश्चित अर्थकी स्मृति भी प्रमाण हो जायेगी। इसपर अकलंकदेवने दो विकल्प उठाते हुए लिखा है-'यदि वह स्मृति प्रमिति-विशेषको उत्पन्न नहीं करतो, तो जैसे प्रत्यक्ष १. प्रमाणमविसंवादि-ज्ञानमनधिगतार्थाधिगमलक्षणत्वात् । अष्टस० पृ० १७५ । २. अनधिगतार्थाधिगमाभावात्तदप्रमाणत्वे लौकिकस्यापि मा भूत विशेषाभावात् । अनधिगतत्वस्वलक्षणाध्यवसायादनुमितेरतिशयकल्पनायां प्रकृतस्यापि न वै प्रमाणत्वं प्रतिषेध्यमनिर्णीतनिर्णयात्मकत्वात् क्षणभङ्गानुमानवत् । अष्टश०, अष्टस० पू० २७८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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