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________________ प्रमाण १७ इसी तरह मीमांसक' ज्ञानको परोक्ष मानते हैं। उनके मतसे ज्ञान अर्थको तो जानता है, किन्तु स्वयंको नहीं जानता। नैयायिक ज्ञानको मीमांसककी तरह परोक्ष तो नहीं मानता, किन्तु ज्ञानान्तरसे वेद्य मानता है। सांख्यकी भी यही स्थिति है। उसके मतसे ज्ञान अचेतन है। इन सब विरोधी मतोंको दृष्टिमें रखकर अकलंकदेवके उत्तराधिकारी आचार्य विद्यानन्दने (७७५-८४० ई०) अपने पूर्वाचार्योंके लक्षणको दृष्टि में रखकर प्रमाणका लक्षण यह स्थिर किया - "स्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम् ।" ( त० श्लोकवा०, अ० १, सू० १०, का० ७७ ) अपना और पदार्थका निश्चयात्मक ज्ञान प्रमाण है। बादको जैन परम्परामें प्रमाणका यही लक्षण मान्य रहा, किन्तु आचार्य माणिक्यनन्दिने (९९३-१०५३ ई०) इस लक्षणमें अर्थ के साथ 'अपूर्व' पद जोड़कर इस प्रकार कर दिया "स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम् ॥१॥" [ परीक्षामुख ] इस पदको वृद्धिपर ही प्रथम विचार किया जाता है, क्योंकि जहाँ प्रमाणके 'अपूर्व' पदरहित लक्षणके सम्बन्धमें सब जैन नैयायिक एक मत हैं वहां 'अपूर्व पदके सम्बन्धमें मतभेद है । चूंकि यह 'अपूर्व' पद जैन परम्पराके लिए नया था, शायद इसीसे माणि. क्यनन्दिने अपने परोक्षामुख नामक सूत्र ग्रन्थमें अपूर्वपदका अर्थ स्पष्ट करने के लिए एक सूत्र दिया 'अनिश्चितोऽपूर्वार्थ:'---जो अर्थ अनिश्चित है, अज्ञात है वह अपूर्व है। इसके पश्चात् भी आचार्यने एक सूत्र और रचा है-'दृष्टोऽपि समारोपात्तादृक् ॥१-५॥ अर्थात् जो केवल अज्ञात है वही 'अपूर्व' नहीं है, किन्तु जो ज्ञात है, उसमें यदि संशय वगैरह उत्पन्न हो जाये तो वह भी अपूर्व ही है। इन सूत्रोंका व्याख्यान करते हुए आचार्य प्रभाचन्दने लिखा है कि धारावाहिक ज्ञान प्रमाण नहीं है, यह बतलानेके लिए ही सूत्रकारने प्रमाणके लक्षणमें 'अपूर्व' पद दिया है। इसपर धारावाहिक ज्ञानको प्रमाण माननेवाले भातृपक्ष की ओरसे यह शंका की गयी कि यदि अपूर्व अर्थका ग्राही ज्ञान ही प्रमाण है तो प्रमाणसंप्लवका विरोध होता है। एक ही अर्थमें अनेक प्रमाणोंकी प्रवृत्तिको प्रमाणसंप्लव कहते हैं। किन्तु अपूर्वार्थग्राही ज्ञानको ही प्रमाण माननेसे एक प्रमाणसे जाने हुए अर्थको दूसरे प्रमाणसे यदि जाना जायेगा तो वह प्रमाण नहीं ठहरेगा। जैसे आगको १. शावर भा० १११।५। २ प्रश० व्योम० पृ० ५२६ । ३. प्रमेयक० मा० पृ० ५६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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