________________
जैन न्याय
भी प्रमाणका लक्षण कहनेकी आवश्यकता हुई।' इस तरह न्यायावतारमें प्रमाणका लक्षण कहनेकी आवश्यकता मात्र बतलायी है। अकलंकदेवने अपने प्रकरणोंको विवृतियोंमें प्रमाणके लक्षणका विश्लेषण और समर्थन करनेको परम्परा प्रचलित की, जिसे उनके उत्तराधिकारी आचार्योंने न केवल अपनाया प्रत्युत खूब पल्लवित और पुष्पित किया।
प्रमाण-लक्षरणका विवेचन
अकलंक देवका कहना है कि-'जैसे घट-पट आदि पदार्थ अज्ञानरूप होनेसे प्रमाण नहीं माने जाते वैसे ही ( नैयायिक आदिके द्वारा माने गये ) अज्ञानरूप सन्निकर्ष आदि भी प्रमाण नहीं हो सकते। इसका तात्पर्य यह नहीं कि ज्ञान मात्र प्रमाण होता है। यदि प्रत्येक ज्ञानको प्रमाण माना जायेगा तो संशयज्ञान, विपरीतज्ञान और अकिंचित्कर ज्ञानको भी, जो कि ठीक-ठीक व्यवहार करानेमें उपयोगी नहीं हैं, प्रमाण मानना होगा। बौद्ध भी तत्त्वका निर्णय कराने में साधकतम ज्ञानके ही प्रामाण्यका समर्थन करते हैं। हां, वस्तुबलसे आये हए सन्निकर्ष आदि भो परम्परासे ज्ञान के कारण हो सकते हैं। अत: अज्ञानरूप वस्तु प्रमाण नहीं हो सकती। उसे यदि प्रमाण माना जा सकता है तो केवल उपचारसे हो माना जा सकता है, मुख्यतासे नहीं।' इस तरह अकलंक देवने सन्निकर्ष आदि अज्ञानोंका और संशय आदि मिथ्याज्ञानोंका निराकरण करते हुए ज्ञानके ही प्रामाण्यका समर्थन किया है।
वैदिक दर्शन ज्ञानको प्रमाण नहीं मानते, किन्तु जिन कारणोंसे ज्ञान पैदा होता है उन कारणोंको प्रमाण मानते हैं और ज्ञानको प्रमाणका फल मानते हैं। न्यायदर्शनके भाष्यकार वात्स्यायनने 'उपलब्धिके साधनोंको प्रमाण' कहा है। इसको व्याख्या करनेवालोंमें मतभेद है। न्यायवार्तिककार उद्योतकर पदार्थको उपलब्धिमें सन्निकर्षको साधकतम मानकर उसे ही प्रमाण मानते हैं। न्यायमंजरीकार जयन्त कारकसाकल्य को प्रमाण मानते हैं। सांख्य इन्द्रियोंकी विषयाकार परिणति रूप वृत्तिको प्रमाण मानता है। भाट्ट-प्रभाकर ज्ञातव्यापारको प्रमाण मानते हैं। बौद्ध यद्यपि ज्ञानको प्रमाण मानता है किन्तु निविकल्पकज्ञानको ही प्रमाण मानता है।
१. लघी० का० ३, विवृति । २. न्याय भा० पृ० १८। ३. सांख्यका० २८ । माठर
वृ० पृ० ४७ । योगद० व्यासभा० पृ० २७ । ४. न्यायमं० पृ० १७ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org