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प्रमाण
जैन सम्मत प्रमारण लक्षण ___ जैन परम्परामें सर्व-प्रयम आचार्य समन्तभद्रने 'स्य-परावभासी ज्ञानको प्रमाण' बतलाया। न्यायावतारके कर्ता सिद्धसेनने इसमें 'बाधारहित' विशेषण लगाया। अर्थात् 'स्वपरावभासी बाधारहित ज्ञानको प्रमाण' बतलाया। जैन न्यायके प्रस्थापक अकलंकदेवने 'कहीं तो 'स्वपैरावभासी व्यवसायात्मक ज्ञानको प्रमाण' बतलाया और कहीं 'अनधिगतार्थक अविसंवादि ज्ञानको प्रमाण' बतलाया। आचार्य विद्यानन्दने सम्यग्ज्ञानको प्रमाण' बतलाकर 'स्वार्थ व्यवसायात्मक ज्ञानको सम्यग्ज्ञान' बतलाया। इस तरह उन्होंने 'अनधिगत' पदको छोड़ दिया। आचार्य माणिक्यनन्दिने 'स्व और अपर्व अर्थके व्यवसायात्मक ज्ञानको प्रमाण' बतलाकर आचार्य समन्तभद्र के द्वारा स्थापित तथा अकलंक देवके द्वारा विकसित प्रमाणके लक्षण का संग्रह कर दिया। उत्तरकालीन ग्रन्थकारोंने प्राय: प्रमाणके इन्हीं लक्षणोंको अपनाया है। ___ आचार्य समन्तभद्र मौर सिद्धसेनने स्वयं अपने लक्षणका विश्लेषण या समर्थन नहीं किया। न्यायावतारमें प्रमाणका लक्षण कहकर यह आशंका अवश्य उठायी गयी है कि-प्रमाण तो प्रसिद्ध है और उसका कार्य भी प्रसिद्ध ही है-सब कोई प्रमाण और उसके कार्यको जानते हैं । अतः प्रमाणका लक्षण कहनेकी क्यों आवश्यकता हुई ? इस आशंकाका समाधान उन्होंने इस रूपमें किया है-'यद्यपि प्रमाणको सब जानते हैं, फिर भी जिनका मन प्रमाणके लक्षणके विषयमें मूढ़ बना हुआ है अर्थात् जो प्रमाणको स्वीकार करते हैं, किन्तु उसकी जिन्हें ठीक-ठीक पहचान नहीं है, उन मूढ़ बुद्धियोंका व्यामोह दूर करनेके लिए ही यहां प्रसिद्ध
१. स्वपरावभासकं यथा प्रमाणं भुवि बुद्धिलक्षणम् ।-वृ० स्व० ६३ । २. प्रमाणं स्वपराभासिज्ञानं बाधविवर्जितम् ।-न्याया०१॥ ३. व्यवसायात्मकं शानमात्मार्थग्राहकं मतम् ।-लघी० ६० । ४. प्रमाणमविसंवादिज्ञानमनधिगतार्थलक्षणत्वात् ।-अष्टश० अष्टस० पृ० १७४ । ५. स्वापूर्वार्धन्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम् ।-परी० १-१। ६. सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम् ,"स्वार्थव्यवसायात्मकं सम्यग्ज्ञानम् । प्र० ५० ५३ । ७. न्याया०, का० २। ८. न्याया०, का०३।
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