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जैन न्याय
इस तरह प्रथम शताब्दी से लेकर अठारहवीं शताब्दी तक जैन न्याय क्रमिक रूससे विकास करते-करते आचार्य अकलंक देवके समय से एक स्वतन्त्र विषयके रूपमें व्यवस्थित हुआ । और अकलंक देवके उत्तरकालीन ग्रन्थकारोंने जिनमें उनके टीकाकारोंका मुख्य भाग था, उसे पल्लवित और पुष्पित करके न केवल जैनन्यायविषयक साहित्य भण्डारको किन्तु भारतीय दर्शनको भी समृद्ध बनाया ।
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