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________________ पृष्ठभूमि क्रमसे रखते हुए उसके सूत्रोंमें शाब्दिक परिवर्तनपूर्वक छह परिच्छेद तैयार किये गये हैं; किन्तु उसके साथमें नयपरिच्छेद और वादपरिच्छेद नये जोड़े गये हैं। क्योंकि परीक्षामुखमें नय और बादकी चर्चा नहीं आयी है। सूत्र-ग्रन्थको स्याद्वादरत्नाकर नामक व्याख्या भी प्रभाचन्द्र के प्रमेयकमलमार्तण्ड और कुमुदचन्द्रको ही अनुकृतिपर रची गयी है । स्याद्वादरत्नाकरको पढ़ लेमेसे प्रभाचन्द्रके दोनों ग्रन्थोंका विषय स्पष्ट रूपसे ज्ञात हो जाता है। कवलाहारके प्रकरणमें इन्होंने प्रभाचन्द्र की युक्तियोंका नामोल्लेखपूर्वक पूर्वपक्षमें निर्देश करके उनका खण्डन भी किया है। उनकी इस टीकामें केवल पिष्टपेषण ही नहीं है, किन्तु प्रासंगिक चर्चाओं में कुछ ऐसे भी नवीन मन्तव्य और ऊहापोह आये हैं जो अपनी विशिष्टता रखते हैं। शास्त्रान्तरोंके नामोल्लेखपूर्वक उद्धरण, इस ग्रन्थकी अपनी एक विशेषता है और उसपर-से भारतीय दर्शनशास्त्रके विविध ग्रन्यों और ग्रन्थकारोंकी एक विस्तृत सूची निर्मित की जा सकती है। आचार्य हेमचन्द्र विक्रमकी १२वीं शताब्दीके आचार्य हेमचन्द्रसे जैनसाहित्यमें हेमयुगका आरम्भ माना जाता है। यह महाराज जयसिंह सिद्धराज तथा राजषि कुमारपालकी राजसभाओंके बहुमान्य तथा बहुश्रुत विद्वान् थे। सभी विषयोंपर इनकी लेखनीका चमत्कार पाया जाता है । इनकी न्यायविषयक रचना प्रमाणमीमांसाका जैनन्यायके ग्रन्थोंमें एक विशिष्ट स्थान है। उसके सूत्र और टोका यद्यपि माणिक्यनन्दिके परोक्षामुखके सूत्र तथा उनपर अनन्तवीर्य-रचित प्रमेयरत्नमाला वृत्ति के ऋणी है तथापि सूत्र और टीकामें हेमचन्द्र का वैशिष्टय पद-पदपर लक्षित होता है। माणिक्यनन्दिने प्रमाणके लक्षणमें जो अपूर्व पदका समावेश किया था, हेमचन्द्र ने उसको अनावश्यक सिद्ध किया है। हेमचन्द्र अकलंकसे विशेष प्रभावित हैं। उनको प्रमाणमीमांसासे जैनन्यायको श्रीवृद्धि हुई है, इसमें सन्देह नहीं। यशोविजय विक्रमको १८वीं शताब्दी में हुए आचार्य यशोविजय न्यायशास्त्र के अन्तिम प्रकाण्ड जैन विद्वान थे। नव्यन्यायका अध्ययन करके नव्य परतिसे जैन पदार्थका निरूपण करनेवाले यह एक मात्र जैन ग्रन्थकार थे। इन्होंने बहुत-से प्रकरणोंकी रचना की, विद्यानन्दकी अष्टसहस्रीपर नव्यन्यायकी शैलीमें विवरण रचा। जैन तर्कभाषा रची जो जैनन्यायके प्रवेशेच्छुकोंके लिए बहुत उपयोगी है। इसमें अकलंकके अनुसार प्रमाण, नय और निक्षेपकी चर्चा है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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