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________________ ४२ जैन न्याय विवरण जेनन्यायके विकासमें अपना मूर्धन्य स्थान रखता है। - प्रमाणनिर्णय एक छोटा-सा प्रकरण है जो संस्कृत गद्य में रचा गया है। इसमें चार परिच्छेद है-प्रमाण लक्षण निर्णय, प्रत्यक्ष निर्णय, परोक्ष प्रमाण निर्णय और आगम निर्णय । प्रत्येक परिच्छेदके अन्तिम श्लोक में स्पष्ट किया है कि 'देव' अकलंकके मतका संक्षिप्त दिग्दर्शन इसमें कराया गया है । इसमें परोक्षके दो भेद किये हैं-एक अनुमान और दूसरा आगम । तथा अनुमानके गौण और मुख्य भेद करके स्मृति, प्रत्यभिज्ञान और तर्कको गौण अनुमान स्वीकार किया है। यह भेदपरम्परा नूतन प्रतीत होती है। अन्य किसी ग्रन्थमें ऐसा निर्देश देखने में नहीं आया। किन्तु ऐसा लगता है कि इसका आधार अकलंकका न्यायविनिश्चय ही है। क्योंकि न्यायविनिश्चयमें तीन ही प्रस्ताव हैं । और दूसरे अनुमान प्रस्ताव में ही उसके अंगरूपसे स्मृति, प्रत्यभिज्ञान और तर्कका कथन किया है । इसीसे वादिराजने भी लिखा है कि उत्तरोत्तर अनुमानके निमित्त होनेसे ये तीनों अनुमान कहे जाते हैं। अभयदेव . जैसे प्रभाचन्द्रने अकलंक और माणिक्य नन्दिके ग्रन्थोंपर बृहत्काय टीका ग्रन्थ रचकर जैन न्यायविषयक साहित्य-भण्डारको समृद्ध किया वैसे ही अभयदेव सूरिने ( विक्रमकी ग्यारहवीं शती ) सिद्धसेनके सन्मति तर्कपर बृहत्काय टीका ग्रन्थ लिखकर जैन न्यायको पल्लवित और पुष्पित किया। अभयदेव सूरि श्वेताम्बर परम्पराके अनुयायी थे; अतः उन्होंने अपनी टोकामें स्त्री-मुक्ति और कवलाहारका भी समर्थन किया है। अन्य प्रमाण-प्रेमयविषयक इतर दर्शनोंकी जिन मान्यताओंका खण्डन प्रभाचन्द्रने किया है उनका खण्डन अभयदेवने भी किया है । पं० सुखलालजी और पं० बेचरदासजोने सन्मतितर्क प्रथम भागकी गुजराती प्रस्तावनामें लिखा है कि इस टोकामें सैकड़ों दार्शनिक ग्रन्थोंका दोहन किया गया है। सामान्य रूपसे कुमारिलका मीमांसा श्लोकवार्तिक, शान्तरक्षित कृत तत्त्व-संग्रहपर कमलशोलकी पंजिका और दिगम्बराचार्य प्रभाचन्द्रके प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रका प्रतिबिम्ब मुख्य रूपसे इस टीकामें है । वादिदेव मूरि वादिदेव सूरिने प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार नामक सूत्र-ग्रन्थ तथा उसपर स्याद्वादरत्नाकर नामक विस्तृत व्याख्या ग्रन्थ रचा था। इनके सूत्र-ग्रन्यको माणिक्यनन्दिकृत परीक्षामुख सूत्रका अपने ढंगसे तैयार किया गया नवीन संस्करण कहा जा सकता है। परीक्षामुखके छह परिच्छेदोंका विषय प्रायः उसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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