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________________ पृष्ठभूमि इस प्रकार प्रभाचन्द्रने अपनी दोनों मूर्धन्य कृतियोंके द्वारा जैनन्यायके विकास. में गम्भीर योगदान देकर दर्शनान्तरोंमें उपलब्ध व्योमवती, न्यायमंजरी, कन्दलीजैसे व्याख्या ग्रन्थोंकी कमीको पूरा किया और अनेक दार्शनिक मन्तव्योंकी युक्तिपूर्ण समीक्षा करके जैनन्यायको नयी शैली और नवीनवस्तु भी प्रदान की। आचार्य वादिराज ___आचार्य वादिराजका मूल नाम ज्ञात नहीं है । वादिराज उनकी उपाधि ज्ञात होती है। इसी उपाधिने उनके यथार्थ नामका स्थान ले लिया था, ऐसा जान पड़ता है। मल्लिषेण प्रशस्तिमैं उन्हें महान् वादो, विजेता और कवि कहा है । उनके द्वारा रचित एकीभाव स्तोत्रके अन्त में एक श्लोक पाया जाता है, जिसका अर्थ है कि सारे वैयाकरण, ताकिक, कवि और भव्यसहाय वादिराजसे पीछे हैं। एक शिलालेखमें उन्हें सभामें अकलंक, कीर्तनमें धर्मकीर्ति, विवादमें बृहस्पति और न्यायवादमें अक्षपादके तुल्य कहा है । यह विक्रमकी बारहवीं शतीके उत्तरार्द्ध में वर्तमान थे, इनकी न्यायविषयक दो रचनाएं उपलब्ध हैं-न्यायविनिश्चयविवरण और प्रमाणनिर्णय । ___ न्यायविनिश्चयविवरण अकलंकदेवके न्यायविनिश्चयको बृहत्काय टोका है जो दो भागों में भारतीय ज्ञानपीठ काशीसे प्रथमबार प्रकाशित हुई है। न्यायविनिश्चयमें तीन प्रस्ताव है-प्रत्यक्ष, अनुमान और प्रवचन । इसी क्रमसे तीन परिच्छेद हैं । यद्यपि टीका गद्यात्मक है, किन्तु मध्यमें टीकाकारने स्वरचित श्लोक भी दिये हैं, जिनका परिमाण लगभग दो हजार है। इसलिए इस टीकाको गद्यपद्यात्मक कहना ही उचित होगा। इसमें भी दर्शनान्तरोंके विविध मन्तव्योंकी समीक्षा की गयी है और उसमें पूर्वपक्षके रूप में तत्-तत् ग्रन्थोंका उपयोग किया गया है । यथा-मीमांसादर्शनके मन्तव्योंको समीक्षा करते हुए कुमारिल, प्रभाकर, मण्डन आदिके मन्तव्योंकी आलोचना की गयी है। न्यायवैशेषिक मतमें व्योम. शिव, भासर्वज्ञ आदि ग्रन्थकारोंके ग्रन्थोंसे उद्धरण देकर उनकी आलोचना की गयी है। किन्तु सबसे अधिक समीक्षा धर्मकीतिके प्रमाणवातिक और उसपर प्रज्ञाकर गुप्त-द्वारा रचित प्रमाणवातिकालंकारकी है। लगभग आधा वातिकालंकार इसमें आलोचित हुआ है। यही इस रचनाकी अपनी विशेषता है । अतः यह १. 'वादिराजमनु शाब्दिकलोको वादिराजमनु ताकिंकसिंहः । वादिराजमनु काव्यकृतस्ते वादिराजमनु भन्यसहायः।' २. 'सदसि यदकलङ्कः कीर्तने धर्मकीतिर्वचसि सुरपुरोधा न्यायवादेऽक्षपादः। इति समयगुरूणामकतः संगतानां प्रतिनिधिरिव देवो राजते वादिराजः।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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