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जैन न्याय
पर विस्तृत निबन्ध भी लिखे हैं जो पूर्वपक्ष और उत्तरपक्षके रूपमें हैं। उनमें विविध विकल्प-जालोंसे परपक्षका खण्डन किया गया है । जिन परपक्षोंका खण्डन प्रभाचन्द्रने किया है वे संक्षेपमें ये हैं
१. सांख्ययोग-इन्द्रियवृत्तिवाद, अचेतन ज्ञानवाद, प्रकृतिकर्तृत्ववाद, २. न्याय-वैशेषिक-कारकसाकल्यवाद, सन्निकर्षवाद, ज्ञानान्तरवेद्यज्ञान
वाद, ईश्वरवाद, पाञ्चरूप्य हेतुवाद, षटपदार्थवाद, षोडशपदार्थवाद, ३. बौद्ध-निर्विकल्पप्रत्यक्षवाद, चित्राद्वैतवाद, शून्यवाद, साकारज्ञानवाद,
त्रैरूप्यहेतुवाद, अपोहवाद, क्षणभंगवाद, ४. वैयाकरण-शब्दाद्वैतवाद, स्फोटवाद, ५. चार्वाक-भूत चैतन्यवाद, प्रत्यक्षकप्रमाणवाद, ६. मोमांसक--अभावप्रमाणवाद, परोक्षज्ञानवाद, वेद अपौरुषेयत्ववाद,
शब्दनित्यत्ववाद, ७. श्वेताम्बर--केवलिकवलाहारवाद, स्त्रीमुक्तिवाद, ८. वेदान्ती--ब्रह्मवाद,
अकलंक और विद्यानन्दके समकालमें और पश्चात् षड्दर्शनोंमें जो ग्रन्थकार हुए प्रभाचन्द्र ने उनकी कृतियोंका अवगाहन करके अपने ग्रन्थोंमें उन्हींको शैलीमें उनके मतोंकी स्थापनापूर्वक निरास किया।
कणादसूत्रपर आचार्य प्रशस्तपादका प्रशस्तपादभाष्य है। उसपर आचार्य व्योमशिवकी टोका व्योमवती है। प्रभाचन्द्रने अपने दोनों टीकाग्रन्थोंमें वैशेषिक मतके पूर्वपक्षमें तो व्योमवतीको अपनाया ही है, अनेक मतोंके खण्डनमें भी उसका अनुसरण किया है। इसी तरह न्यायसूत्रपर वात्स्यायनका न्यायभाष्य है तथा उद्योतकरका न्यायवार्तिक ग्रन्थ है। प्रभाचन्द्रने न्यायदर्शनके सृष्टिकतत्ववाद, षोडशपदार्थवाद आदिके पूर्वपक्षमें न्यायवार्तिकका विशेष उपयोग किया है । तथा जयन्तको न्यायमंजरीका भी समुचित उपयोग किया है ।
मीमांसकोंके शब्दनित्यत्ववाद और वेदापौरुषेयत्ववाद आदिमें शावरभाष्य तथा उसपर निर्मित कुमारिलके श्लोकवार्तिक और प्रभाकरको बृहतीका विशेष उपयोग किया है । तथा उन्होंने शब्दनित्यत्ववाद आदि प्रकरणोंमें कुमारिल की युक्तियोंका सप्रमाण उत्तर दिया है। बौद्धाभिमत वादोंके निरसन में प्रज्ञाकरगुप्तके प्रमाणवातिकालंकार तथा शान्तरक्षितके तत्त्वसंग्रहका समुचित उपयोग किया गया है।
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