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________________ पृष्ठभूमि विद्यानन्द मीमांसक कुमारिलके मीमांसा शास्त्र के मर्मज्ञ थे । जैसे अकलंकने उद्योतकरके न्यायवार्तिकसे प्रेरित होकर तत्त्वार्थसूत्रपर तत्त्वार्थवार्तिककी पाण्डित्यपूर्ण रचना की, वैसे ही विद्यानन्दने कुमारिलके मीमांसाश्लोकवार्तिकसे प्रेरित होकर तत्त्वार्थसूत्रपर तत्त्वार्थश्लोकवार्तिककी रचना की । उनकी कृतियोंने जैन न्यायके भण्डारको समृद्ध किया और उनमें आलोचनाके रूपमें विविध दर्शनोंके उन मन्तव्यों का समावेश हुआ, जिनको चर्चा उससे पूर्व जैन दर्शन के ग्रन्थों में नहीं थी । उदाहरण के लिए अष्टसहस्रीके प्रारम्भ में वेदार्थका विचार करते हुए आचार्य विद्यानन्दने भावना, विधि और नियोगको पूर्वपक्ष स्थापना के साथ जो पाण्डित्यपूर्ण आलोचना की है, वह जैन न्यायके पूर्वकालीन ग्रन्थों में नहीं है । इसी में नियोगके जो ग्यारह पक्ष उपस्थित किये हैं वे आजके नियोगवादी ग्रन्थोंमें भी नहीं मिलते। कुमारिलने जो मनुष्यकी सर्वज्ञताका खण्डन किया था, यद्यपि अकलंकदेवने सूत्ररूपमें उसका निराकरण अपनी कृतियोंमें कर दिया था, किन्तु विद्यानन्द ने अपने ग्रन्थोंमें विस्तारसे कुमारिलका खण्डन किया है । इसी तरह ईश्वरके सृष्टिकर्तृत्व निषेधका प्रतिपादन आप्तपरीक्षा नामक प्रकरण में किया है । पहले शास्त्रार्थोंमें जो पत्र दिये जाते थे उनमें क्रियापद वगैरह गूढ़ रहते थे जिसका आशय समझना बहुत कठिन होता है । उसीके विवेचन के लिए विद्यानन्दने पत्रपरीक्षा नामक एक छोटे-से प्रकरणकी रचना की थी । जैन - परम्परामें इस विषयकी सम्भवतया यह प्रथम और अन्तिम स्वतन्त्र रचना है । यद्यपि प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्डके अन्तमें पत्रवाक्यको चर्चा की है, किन्तु वह विद्यानन्दकी ऋणी हो सकती है। आचार्य विद्यानन्दने अपनी रचनाओंके द्वारा जहाँ जैन न्यायविषयक साहित्य में नवीन चर्चाओंका समावेश किया वहीं प्रचलित मन्तव्यों में कुछ सुधार भी किये। ३७ विद्यानन्दके छह ग्रन्थ उपलब्ध हैं - तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, अष्टसहस्रो, प्रमाणपरीक्षा, आप्तपरीक्षा, सत्यशासन-परीक्षा और पत्रपरीक्षा । विद्यानन्दमहोदय अनुपलब्ध है शेष सभी मुद्रित होकर प्रकाशित हो चुके हैं। इनमें से प्रमाणपरीक्षा गद्य में लिखित प्रमाण विषयक प्रथम रचना है जिसमें प्रमाणके स्वरूप भेद, आदिका प्रतिपादन है इनके सिवाय समन्तभद्रके युक्त्यनुशासनपर टोका भी रची है । अकलंक जैन न्यायके प्रस्थापक थे तो विद्यानन्द उसके संपोषक और संवर्धक थे । दो अनन्तवीर्य अकलंकदेव के सिद्धिविनिश्चयके व्याख्याकार दो अनन्तवीर्य हुए । एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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