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द
जैन न्याय
और पत्रपरीक्षामें कुमारनन्दि भट्टारकके वादन्याय नामक ग्रन्थसे तीन श्लोक उद्धृत किये हैं, जिनमें से तीसरा श्लोक तो वहीं है जो ऊपर प्रमाणपरीक्षासे उद्धृत किया है । उससे पहलेके दो श्लोक इस प्रकार हैं
"प्रतिपाद्यानुरोधेन प्रयोगेषु पुनर्यथा । प्रतिज्ञा प्रोच्यते तज्ज्ञैः तथोदाहरणादिकम् । न चैनं साधनस्यैकलक्षणत्वं विरुध्यते । हेतुलक्षणतापायादन्यांशस्य तथोदितम् ॥"
[पत्रपरीक्षा ] इस प्रकार यह सुनिश्चित है कि ये दोनों आचार्य विद्यानन्दसे पहले हुए हैं । इनमें से कुमारसेनकी उक्तियोंसे तो आचार्य विद्यानन्दकी अष्टसहस्री वर्धमान हुई, जो अकलंकदेवकी अष्टशतीपर रचो गयी है । बहुप्त सम्भवतया कुमारनन्दिका वादन्याय नामक ग्रन्थ विद्यानन्दके सम्मुख उपस्थित था। ये दोनों ही आचार्य न्यायशास्त्रके दिग्गज विद्वान् प्रतीत होते हैं परन्तु इनकी कोई भी कृति आज उपलब्ध नहीं है । अतः यह कहना शक्य नहीं है कि जैन न्यायके क्रमिक विकासमें इनका योगदान किस रूपमें था। फिर भी कुमारनन्दिके 'वादन्याय' नामक ग्रन्थके नामसे तथा उससे उद्धृत उक्त श्लोकोंसे यह स्पष्ट है कि वादन्यायके विविध अंगोंके वे पारगामी थे और उन्होंने अपनी कृतिके द्वारा अकलंकोक्त वादन्यायको पुष्पित और फलित किया था। बौद्धदार्शनिक धर्मकीतिने एक वादन्याय नामक ग्रन्थ रचा था। अकलंकदेवने उसके मन्तव्योंका खण्डन किया है। सम्भवतया उसी वादन्यायकी अनुकृतिपर कुमारनन्दिने वादन्याय रचा होगा। अतः कुमारनन्दि धर्मकीति ( ६५० ई० ) के पश्चात् हुए प्रतीत होते हैं। सम्भव है अकलंकके उत्तरकालीन या लघु समकालीन हों। आचार्य विद्यानन्द ___ अकलंकदेवके पश्चात् उनके चार प्रमुख टीकाकार हुए। उनमें भी प्रमुख थे आचार्य विद्यानन्द । इन्होंने अकलंकदेवकी गूढार्थ अष्टशतीको आत्मसात् करते हा उसकी व्याख्याके रूपमें जो अष्टसहस्रो रची, वह भारतीय दर्शन शास्त्रके मुकुटमणि ग्रन्थोंमें है । उसको पाण्डित्यपूर्ण ताकिक शैली, प्रमेयबहुलता, और प्रांजल भाषा विद्वन्मनोमुग्धकारी है । अकलंकदेवकी गूढार्थ पंक्तियों के अभिप्रायको यथार्थरूपसे उद्घाटित करने में विद्यानन्दकी प्रतिभाका चमत्कार अपूर्व है। विद्यानन्द भी अकलंकदेवकी तरह षड्दर्शनोंके पण्डित थे। किन्तु जैसे अकलंकदेव धर्मकीतिके कठोर आलोचक और बौद्धदर्शन में विचक्षण थे, वैसे ही
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