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________________ पृष्ठभूमि योगसूत्र, सांख्यकारिका, अभिधर्मकोश, प्रमाणसमुच्चय, समानान्तरसिद्धि आदि अन्य दर्शनोंके ग्रन्थोंके उद्धरण पाये जाते हैं। जो अकलंक देवके विस्तृत और गहन अध्ययनके सूचक हैं। २, अष्टशती- यह समन्तभद्रकृत आप्तमीमांसाकी अत्यन्त गूढ संक्षिप्त वृत्ति है । आठ सौ श्लोकप्रमाण परिमाण होनेसे अष्टशती नाम दिया गया है । इसपर आचार्य विद्यानन्दकी अष्टसहस्रो टीका है। उसीसे इसका हार्द स्पष्ट होता है। ३, लघीयस्त्रय सविवृति- यह प्रमाणप्रवेश, नयप्रवेश और प्रवचनप्रवेश नामक तीन प्रकरणोंका संग्रहरूप है । मूल कारिकाओंपर स्वोपज्ञ विवृति भी है। इसमें प्रमाणके भेद, उनका स्वरूप, विषय, फल आदिका तथा नयोंका सुन्दर विवेचन है। ४, न्यायविनिश्चय- इसपर वादिराज सूरिने विवरण ग्रन्थ रचा है। इसमें तीन प्रस्ताव हैं-प्रत्यक्ष, अनुमान और प्रवचन, तोनोंमें अपने-अपनेसे सम्बद्ध विविध विषयोंकी विस्तृत चर्चा है। अकलंकदेवके पश्चात् जो जैनग्रन्धकार हुए उन्होंने अपनी न्यायविषयक रचनाओंमें अकलंकदेवका ही अनुसरण करते हए जैनन्याय-विषयक साहित्यकी श्रीवद्धि की और जो बातें अकलंकदेवने अपने प्रकरणोंमें सूत्ररूपमें कही थीं, उनका उपपादन तथा विश्लेषण करते हुए दर्शनान्तरोंके विविध मन्तव्यों की समीक्षामें बृहत्काय ग्रन्थ रचे, जिनसे जैनन्याय-रूपी वृक्ष पल्लवित और पुष्पित हुआ। ४. अकलंकदेवके उत्तरकालीन जैन नैयायिक कुमारसेन और कुमारनन्दि आचार्य विद्यानन्दने अपनो अष्टसहस्रोको कुमारसेनकी उक्तियोंसे वर्धमान बतलाया है तथा अपनी प्रमाणपरीक्षामें "तथा चाभ्यधायि कुमारनन्दिभट्टारकैः" लिखकर एक श्लोक उद्धृत किया है "अन्यथानुपपत्येकलक्षणं लिंग्यमङ्ग-यते । प्रयोगपरिपाटी तु प्रतिपाद्यानुरोधतः ॥" (प्रमाणपरीक्षा पृ० ७२ ) तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक ( पृ० २८० ) में उनका उल्लेख वादन्यायमें विचक्षण रूपसे किया है __"कुमारनन्दिनश्चाहुदिन्यायविचक्षणाः ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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