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________________ जैन न्याय भट्टाकलंकको ही उसका प्रारम्भक मानना होगा। पिछले सभी जैन ताकिकोंने निग्रहस्थान' निरूपणमें भट्टाकलंकके ही वचनोंको उद्धृत किया है इससे भी उक्त कथनकी पुष्टि होती है। वादका अन्तिम परिणाम जय-पराजय होता है। अत: जय-पराजयकी व्यवस्थामें भी अकलंकदेवने न्याय्य अहिंसक दृष्टिकोणको महत्त्व दिया । उनका कहना है कि स्वपक्षको सिद्धि ही जय है और दूसरे पक्षकी असिद्धि ही उसकी पराजय है। जब एक पक्षकी सिद्धि होगी तो सुतरां दूसरे पक्षकी असिद्धि अनिवार्य है । अतः सिद्धि-असिद्धिके साथ ही जय-पराजय व्यवस्था प्रतिबद्ध है । अकलंकके द्वारा स्थापित ऐसे जय-पराजय व्यवस्थाको भी सभी दिगम्बर-श्वेताम्बर ताकिकोंने स्वीकार किया है। इस प्रकार अकलंकदेवने न्यायके सभी अंगोंको परिमाजित करके जैन न्यायको सुव्यवस्थित कर दिया । अतः अकलंकदेव जैन न्यायके प्रतिष्ठाता माने जाते हैं। अन्तमें अकलंक देवकृत रचनाओंकी एक झाँको दे देना उचित होगा । अक. लंक देवकी छह दार्शनिक कृतियाँ उपलब्ध हैं और मुद्रित होकर प्रकाशित हो चुकी हैं १, तत्त्वार्थवातिक सभाष्य-यह तत्त्वार्थसूत्र ग्रन्थपर उद्योतकरके न्यायवार्तिककी शैलीपर लिखा गया वार्तिक ग्रन्थ है। वातिकोंके साथ उनकी व्याख्या भी है। दार्शनिक दृष्टिसे पहला और पांचवां अध्याय तथा चतुर्थ अध्यायके अन्तिम सूत्रकी व्याख्या महत्त्वपूर्ण है। इस व्याख्यामें अकलंक देवने अनेकान्तको सिद्धि करते हुए सप्तभंगीका विशद विवेचन किया है । प्रथम अध्यायमें छठे सूत्र की व्याख्यामें भी सप्तभंगीका विवेचन है, साथ ही अनेकान्तमें अनेकान्तको घटित करते हुए 'अनेकान्तवाद न संशयवाद है और न छलवाद है' इसका सयुक्तिक विवेचन किया है। इसी प्रथम अध्यायके प्रथम सूत्रकी विवेचनामें सांख्य, न्याय, वैशेषिक तथा बौद्धोंके मोक्ष कारणों का निराकरण किया है उसमें बौद्धोंका प्रतीत्यसमुत्पादवाद भी है। तथा बारहवें सूत्रकी व्याख्या में उक्त दार्शनिकोंके प्रत्यक्षके लक्षणोंकी समीक्षा की है, उसमें दिङ्नागके प्रत्यक्ष लक्षण कल्पनापोढका खण्डन है, धर्मकीतिकृत अभ्रान्त पदवाले प्रत्यक्ष लक्षणका नहीं। प्रत्येक चर्चा में अनेकान्त दृष्टिका प्रयोग किया गया है। मानो उसीके व्यवस्थापनके लिए ग्रन्थरचना की गयी हो । इसमें पातंजल महाभाष्य, वाक्यपदीय, न्यायसूत्र, वैशेषिकसूत्र, जैमिनिसूत्र, १. 'पास्तां तावदलाभादिरयमेव हि निग्रहः । न्यायेन विजिगीषूणां स्वाभिप्रायनिवर्तनम् ॥ ---न्यायवि० २२१३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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