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पृष्ठभूमि
३३ और उपेक्षा है । न्यायावतारमें ( का० २८ ) भी ऐसा हो कथन है। अकलंक देवने इस कथनको अपनाते हए प्रमाण और फलके भेदाभेदविषयक मन्तव्यको स्पष्ट किया तथा अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा इन क्रमसे होनेवाले चार मतिज्ञानोंमें पूर्व-पूर्वको प्रमाण तथा उत्तर-उत्तर ज्ञानको फलरूप माना। इस तरह अकलंकदेवने प्रमाणतत्त्वके स्वरूप, संख्या, विषय और फलके सम्बन्ध में विविध विप्रतिपत्तियोंका निरसन करके जैन प्रमाणशास्त्रको सुव्यवस्थित किया । ___ दार्शनिक क्षेत्रमें वाद भी चर्चाका एक प्रमुख विषय रहा है। सभीने वादका प्रयोजन तत्त्वज्ञान की प्राप्ति या प्राप्त तत्त्वज्ञानको रक्षा माना है। वादके चार अंग हैं--वादी, प्रतिवादी, सभ्य और सभापति । इसीसे उसे चतुरंगवाद कहते हैं । इसमें भी कोई मतभेद नहीं है। किन्तु साध्य और साधन सामग्रीमें मतभेद न होते हुए भी उसकी साधन प्रणाली में मतभेद है।
जैन परम्पराके अनुसार चतुरंगवादका अधिकारी विजिगीषु-जयका इच्छुक व्यक्ति है। किन्तु न्याय परम्पराके विजिगीषुमें और जैन परम्पराके विजिगीषुमें अन्तर है । पहलेके अनुसार विजिगीषु वही है, जो न्याय या अन्यायसे छल आदिका प्रयोग करके भी प्रतिवादीको परास्त करना चाहता है। किन्तु अकलंकदेव उसीको विजिगीषु मानते हैं जो अपने पक्षको सिद्धि न्याय्य रीतिसे करनेका इच्छुक है। उन्होंने अपने सिद्धिविनिश्चयके वादसिद्धि नामक प्रकरणमें लिखा हैस्वपक्षके साधनमें समर्थ वचनको चतुरंगवाद या जल्प कहते हैं। उसकी अवधि पक्षनिर्णय पर्यन्त है और फल मार्गप्रभावना है।
न्याय परम्परामें कथाके तीन भेद किये है--वाद, जल्प और वितण्डा । जल्प-वितण्डा करनेवालेको विजिगीषु माना है और तत्त्वबुभुत्सु कथाको वाद । जल्प-वितण्डामें छल आदिका प्रयोग विधेय माना गया है। किन्तु जैन परम्परामें छल आदिका प्रयोग मान्य नहीं है। इसीसे जैन परम्परामें जल्प या वितण्डा वादसे भिन्न नहीं है। अकलंकदेवने सिद्धिविनिश्चयके वाद या जल्लसिद्धि नामक पांचवें प्रस्तावमें तथा प्रमाणसंग्रहके छठे प्रस्तावमें उक्त विषयमें विस्तारसे प्रकाश डाला है। न्यायविनिश्चय तथा अष्टशतीमें भी प्रसंग आये हैं। वादका ही एक
अंग निग्रहस्थान है । जैन-परम्परामें निग्रहस्थानका सर्वप्रथम निरूपण करनेवाले , जल्पनिर्णय नामक ग्रन्थके रचयिता आचार्य श्रोदत्त और पात्रकेसरी प्रतीत होते हैं । किन्तु उनके ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हैं, अतएव उपलब्ध साहित्यके आधारसे
१. 'पूर्व-पूर्व प्रमाणत्वं फलं स्यादुत्तरोत्तरम्' ॥ ६ ॥-लघीयस्त्रय। २. 'समर्थवचनं जल्पं चतुरङ्ग विदुबु धाः । पक्षनिर्णयपर्यन्तं फलं मार्गप्रभावना ॥ २ ॥
--सि० वि० पृ० ३११ ।
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