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________________ ३२ जैन न्याय ___ अकलंक देवने अपने लघीयस्त्रयमें बतलाया कि परोक्षप्रमाणके स्मृति, प्रत्य. भिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम ये पांच भेद हैं । और इनके द्वारा व्यवहारमें कोई विसंवाद नहीं होता अतः ये प्रमाण हैं। ___ उन्होंने उनके प्रामाण्यको स्थापित करके उनके लक्षण भी सुनिश्चित कर दिये । मीमांसक और नैयायिक आदि उपमानको स्वतन्त्र प्रमाण मानते हैं। परन्तु अकलंक देवने प्रत्यभिज्ञानमें उसका अन्तर्भाव दिखाते हुए प्रतिपक्षियोंके सामने यह आपत्ति उपस्थित की कि यदि सादृश्यविषयक उपमानको पृथक् प्रमाण मानते हो तो वैसादृश्य तथा अन्य आपेक्षिक धर्मोको विषय करनेवाले जोड़ रूप ज्ञानोंको भी स्वतन्त्र प्रमाण मानना होगा । ___ इसी तरह व्याप्तिग्राही तर्कको प्रमाण न माननेवाले वादियोंको लक्ष्य करके अकलंकने कहा कि यदि तर्कको प्रमाण नहीं मानते हो तो उसके द्वारा गृहीत व्याप्तिमें कैसे विश्वास किया जा सकेगा, क्योंकि व्याप्तिका ग्रहण न तो प्रत्यक्षसे सम्भव है और न अनुमानसे । इस तरह अकलंक देवने परोक्ष प्रमाणके भेदों तथा उनके स्वरूपकी जो व्यवस्था की उसे ही उनके उत्तरकालीन दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दार्शनिकोंने एकमतसे मान्य किया। पहले लिखा है कि बौद्ध हेतुका लक्षण त्रैरूप्य मानते थे, पात्रकेसरी स्वामीने अन्यथानुपपत्ति या अविनाभाव नियमको ही हेतुका लक्षण माना और उसे हो अकलंकदेवने भी मान्य किया। अकलंकदेवने ही प्रमाणलक्षणसम्बन्धी परमतोंका निरसन सर्वप्रथम किया और उत्तरवर्ती दिगम्बर श्वेताम्बर सभी ताकिकोंने उनके मार्गको अपनाकर अपने-अपने प्रमाणविषयक लक्षण ग्रन्थों में अन्य वादियोंके लक्षणोंका विस्तारसे खण्डन किया है। प्रमाणका विषय द्रव्यपर्यायात्मक वस्तु है, इसका प्रतिपादन तथा समर्थन भी अकलंकदेवने किया। दार्शनिक क्षेत्रमें प्रमाणके साथ उसके फलकी चर्चा भी अपना स्थान रखती है। जैन परम्परामें सबसे प्रथम आचार्य समन्त भद्रने प्रमाणके फलका विचार व्यवस्थित रीतिसे स्पष्ट किया। उनके कथनानुसार ( आप्तमी० का० १०२) प्रमाणका साक्षात् फल अज्ञान विनिवृत्ति है और व्यवहित फल हान, उपादान १. अक्षधीस्मृतिसंज्ञाभिः चिन्तयाभिनिबोधिकैः । __ व्यवहाराविसवादः तदाभासस्ततोऽन्यथा ॥२५॥'-लघीयस्त्रय । २. 'उपमानं प्रसिद्धार्थसाधात् साध्यसाधनम् । __तद्वैधात् प्रमाणं किं स्यात् संज्ञि-प्रतिपादनम् ॥ १६ ॥'-लघीयस्त्रय । ३. 'अविकल्पधिया लिङ्ग न किचित् सम्प्रतीयते ॥११॥ नानुमानादसिद्धत्वात् प्रमाणान्तरमाजसम् ॥' -लघीयस्त्रय। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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