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________________ पृष्ठभूमि .... इस कारिकाकी व्याख्या आचार्य विद्यानन्दने अपने तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक (पृ० १८२ ) में दी है। उससे प्रमाणकी आगमिक परम्परा और तार्किक परम्पराका समन्वय अकलंकदेवने कितनी दक्षतासे किया, यह स्पष्ट हो जाता है। अतः उसको नीचे दिया जाता है. 'प्रत्यक्षं विशदं ज्ञानं त्रिधा' ऐसा कथन करके अकलंकदेवने मुख्य अतीन्द्रियपूर्ण केवलज्ञान और अपूर्ण अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञानका ग्रहण किया है। क्योंकि ये ज्ञान प्रत्यक्ष की आगमिक परिभाषाके अनुसार 'अक्ष' अर्थात् आत्माके आश्रयसे होते हैं, इसलिए प्रत्यक्ष हैं । व्यावहारिक दृष्टिसे ( प्रत्यक्षके तीन भेदोंमें अतीन्द्रिय प्रत्यक्षके साथ ) इन्द्रिय प्रत्यक्ष और अनिन्द्रिय प्रत्यक्षका ग्रहण किया है। क्योंकि उनमें भी स्पष्टताका कुछ अंश रहता है। अतः इससे तत्त्वार्थसूत्रके कथनमें कोई व्याघात नहीं आता है । श्रुत और प्रत्यभिजा आदि परोक्ष हैं, ऐसा कहना भी सूत्रविरुद्ध नहीं है, क्योंकि 'आद्ये परोक्षम्' इस सूत्र के द्वारा उन्हें परोक्ष कहा है। शंका-तत्त्वार्थसूत्रमें तो अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा तथा स्मृतिको परोक्ष कहा है ? . समाधान- 'प्रत्यभिज्ञादि' पदके दो समासोंके द्वारा सबका ग्रहण हो जाता है । 'प्रत्यभिज्ञा का आदि अर्थात् पूर्ववर्ती' इस समासार्थके अनुसार स्मृति पर्यन्त ज्ञानोंका संग्रह हो जाता है, क्योंकि अवग्रहादिको भी प्रधानरूपसे परोक्ष कहा है । और 'प्रत्यभिज्ञा है आदिमें जिनके' ऐसा समास करनेसे अनुमान पर्यन्त प्रमाणोंका संग्रह हो जाता है । और इस तरह कोई भी परोक्ष प्रमाण नहीं छूट जाता । अतः 'प्रत्यभिज्ञादि' पद युक्त है। इसके द्वारा व्यावहारिक रूपसे तथा मुख्यरूपसे इष्ट परोक्ष प्रमाणोंके समूहका बोध होता है।' ... इसका आशय यह है कि प्रत्यक्षकी आगमिक परिभाषाके अनुसार तो केवलज्ञान और अवधि मनःपर्यय ही प्रत्यक्ष हैं। यदि यही परिभाषा बनी रहती तो प्रत्यक्षके इन्द्रिय प्रत्यक्ष और अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष भेद सम्भव नहीं थे। इसलिए प्रत्यक्षको आत्मनिमित्तपरक परिभाषाके स्थानमें स्पष्टपरक परिभाषा करके अकलंक देवने लोक-प्रचलित इन्द्रिय प्रत्यक्ष और अनिन्द्रिय प्रत्यक्षको भी प्रत्यक्षकी सीमामें गभित कर लिया क्योंकि उनमें भी अंशतः स्पष्टता पायी जाती है। शेष स्मृति आदि तो परोक्ष थे ही। इस प्रकार अकलंकदेवने प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाणोंकी जो व्यवस्था को उसे उनके उत्तरकालीन सभी दिगम्बर और श्वेताम्बर दार्शनिकोंने एक मतसे स्वीकार किया। उनकी व्यवस्था इतनी सुव्यवस्थित थी कि किसीको उसमें परिवर्तन करनेकी आवश्यकता ही नहीं हुई । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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