________________
जैन न्याय
१
1
अकलंकदेवते अपने लघीयस्त्रयमें शब्दसंसृष्ट ज्ञानको श्रुत और शब्द असंसृष्ट ज्ञानको सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष निर्धारित किया । सिद्धिविनिश्चय तथा उसकी स्वोपज्ञ विवृति में भी यही कथन है ।
3
अकलंकके प्रमुख टीकाकार विद्यानन्दने स्मृति आदिको अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष नहीं माना और न शब्दसंसृष्ट ज्ञानको श्रुत ही माना। उन्होंने प्रमाणपरीक्षा नामक अपने प्रकरण में अकलंकदेव के मतानुसार प्रत्यक्ष के इन्द्रिय प्रत्यक्ष, अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष और अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष भेद करके भी अवग्रहादि धारणपर्यन्त ज्ञानको एक देश स्पष्ट होनेके कारण इन्द्रिय प्रत्यक्ष और अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष माना है; किन्तु स्मृति आदिको परोक्ष ही माना है तथा तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक में लघीयस्त्रय उक्त कथनको आलोचना करते हुए कहा है कि 'शब्दसंसृष्ट ज्ञानको ही श्रुत कहते हैं' इस परिभाषाके निर्माणमें भतृर्तृहरिका शब्दाद्वैतवाद निमित्त है । शब्दाद्वैतवादी भर्तृहरिके मतानुसार कोई ज्ञान शब्दसंसर्गके विना नहीं होता । अतः उसके मतका निराकरण करनेके लिए अकलंकदेवने यह उपपादन किया कि शब्दसंसर्गरहित ज्ञान मति है और शब्दसंसर्ग - सहित ज्ञान श्रुत है ।
अकलंकदेवके उक्त दृष्टिकोणको स्पष्ट करनेके लिए यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि उन्होंने प्रमाणके स्वार्थ और परार्थ भेदको मान्य करके भी स्वतन्त्र रूप से अनुमानके स्वार्थ परार्थ भेद नहीं बतलाये क्योंकि उनके मत से केवल अनुमान ही परार्थ नहीं है बल्कि अन्य प्रमाण भी शब्दसंसर्ग - सहित होनेपर परार्थ होते हैं और वे सब श्रुत कहे जाते हैं । श्रुर्ते परोक्ष है । अकलंकदेवने अर्थापत्ति, अनुमान, उपमान आदि प्रमाणोंका अन्तर्भाव श्रुतमें ही किया है । अपने प्रमाणसंग्रह नामक प्रकरणके प्रारम्भमें अकलंकदेवने प्रमाणको चर्चाको प्रारम्भ करते हुए लिखा है
"प्रत्यक्षं विशदं ज्ञानं त्रिधा श्रुतमविप्लवम् । परोक्षं प्रत्यभिज्ञादि प्रमाणे इति संग्रहः ॥ "
१. 'ज्ञानमाद्यं मतिः संज्ञा चिन्ता चाभिनिबोधनम् । माङ् नामयोजनाच्छेषं श्रुतं शब्दानुयोजनात् ॥ १० ॥ २. ' स्मृत्या प्रत्यभिज्ञावतोहविषयाद्धेतोरशब्दानुमा कल्प्या;
श्रभिनिबोधकी श्रुतमतः स्यात् शब्दसंयोजितम् ।।' सि० वि० टी० पृ० १२० । ३. 'अत्र प्रचक्षते केचिच्छ्र तं शब्दानुयोजनात् ।
तत्पूर्वनियमाद्युक्तं नान्यथेष्टविरोधतः ॥ ८४ ॥ आदि । पृष्ठ २३६ ॥ ४. श्रुतं परोक्षं अत्र अर्थात्यनुमानोपमानादीन्यन्तर्भवन्ति ।
Jain Education International
- लघीय० स्वो० वि०, ६१ का० ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org