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पृष्ठभूमि दो भेद किये गये एक इन्द्रिय प्रत्यक्ष और दूसरा अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष । इन्द्रिय प्रत्यक्षमें मतिको गर्भित किया गया और अनिन्द्रिय प्रत्यक्षमें स्मृति आदिको ।
मति स्मृति आदि प्रमाणोंको सांव्यवहारिक प्रताप बतलाते हुए अकलंकदेवने लिखा है कि मति आदि तभीतक सांव्यवहारिक प्रत्या . उनमें शब्दयोजना नहीं की जाती । शब्दयोजना सापेक्ष होनेपर वे परोक्ष हो कहे जायेंगे । और उस अवस्थामें वे श्रुतप्रमाणके भेद होंगे । इस मन्तव्यसे प्रमाणोंकी दिशामें एक नया प्रकाश पड़ता है और उसके उजाले में कई रहस्य स्पष्ट होते हैं। अतः उनके स्पष्टीकरणके लिए ऐतिहासिक पर्यवेक्षण करना आवश्यक है। ___गौतमने अपने न्यायसूत्रमें अनुमानके स्वार्थ और परार्थ भेद किये थे; किन्तु न्यायवार्तिककार उद्योतकरसे पहले नैयायिक किसी व्यक्तिको ज्ञान करानेके लिए परार्थानुमानकी उपयोगिता नहीं मानते थे। बौद्ध दार्शनिक दिङ्नागने सर्वप्रथम दोनों भेदोंका ठीक-ठीक अर्थ करके स्वार्थानुमान और परार्थानुमानके मध्यमें भेदकी रेखा खड़ी की। न्यायावतारमें परार्थानुमानको स्थान तो दिया गया, किन्तु उसके समन्वयका कोई प्रयत्न नहीं किया गया । पूज्यपाद देवनन्दिने इस ओर ध्यान दिया। उन्होंने प्रमाणके स्वार्थ और परार्थ भेद करके श्रुतप्रमाणको उभयरूप बतलाया । अर्थात् ज्ञानात्मक श्रुतज्ञानको स्वार्थ और वचनात्मक श्रुतज्ञानको परार्थ कहा । किन्तु शेष मति आदि ज्ञानोंको स्वार्थ ही कहा । अकलंकदेवने आगमिक परम्परा और तार्किक पद्धतिको दृष्टिमें रखकर उक्त समस्याको दो प्रकारसे सुलझानेका प्रयत्न किया । आगमिक परम्परा में तो उन्होंने पूज्यपादका ही अनुसरण किया और श्रुतज्ञानके अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक भेद करके स्वार्थानुमान वगैरहका अन्तर्भाव अनक्षरात्मक श्रुतज्ञानमें और परार्थानुमान वगैरहका अन्तर्भाव अक्षरात्मक श्रुतज्ञानमें किया। किन्तु तार्किक क्षेत्र में उन्हें अपने दृष्टिकोणमें परिवर्तन करना पड़ा, क्योंकि उस क्षेत्रमें श्रुतज्ञानका रूढ अर्थ मान्य नहीं हो सकता था, और इसका कारण यह था कि सांख्य आदि दर्शनोंमें शब्द या आगम प्रमाणके नामसे एक स्वतन्त्र प्रमाण माना गया था, जो केवल शब्दजन्य ज्ञानसे ही सम्बद्ध था। श्रुतप्रमाणसे भी उसीका बोध होता था; क्योंकि श्रुत शब्दका न्युत्पत्तिसिद्ध अर्थ 'सुना हुआ' होता है। अतः
१. 'तत्र सांव्यवहारिकमिन्द्रियानिन्द्रियप्रत्यक्षम्'-लघी० विवृति का० ४। २. 'अनिन्द्रियप्रत्यक्षं स्मृतिसंशाचिन्ताभिनिबोधात्मकम्'-लघी० विवृति, का० ६१ । ३. 'श्रुतं पुनः स्वार्थ भवति परार्थं च, ज्ञानात्मक स्वार्थ वचनात्मकं परार्थम्'
सर्वार्थसिद्धि-१६। ४. तत्त्वार्थ वार्तिक १ । २० । १५ ।
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