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________________ जैन न्याय नहीं था तथा जैनदर्शनमें अनुमान आदि नाम प्रचलित नहीं थे। न्यायावतारमें यद्यपि प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाणोंके साथ अनुमान और शाब्दप्रमाणका भी लक्षण कहा है, किन्तु वे किसके भेद हैं, इस विषयमें कुछ नहीं कहा गया है । दूसरे, सब दर्शनोंमें इन्द्रियजन्य ज्ञानको प्रत्यक्ष कहा है, जब कि जैनधर्म उसे परोक्ष कहता है । अतः दार्शनिकोंके बीचमें प्रमाणविषयक चर्चा छिड़नेपर जैनोंकी विचित्र स्थितिका होना स्वाभाविक था। अकलंक देवने बड़ो बुद्धिमानीसे प्रमाणविषयक सब गुत्थियोंको सदाके लिए इस खूबीसे सुलझाया कि उससे प्राचीन परम्पराका भी घात नहीं हुआ और दार्शनिक क्षेत्रको सब कठिनाइयाँ भी सुलझ गयीं। उन्होंने तत्त्वार्थ सूत्रके 'तत्प्रमाणे सूत्रको आदर्श मानकर प्रमाणके प्रत्यक्ष और परोक्ष भेद तो पूर्ववत् ही मान्य किये; किन्तु प्रत्यक्षके विकलप्रत्यक्ष और सकलप्रत्यक्ष भेदोंके स्थानमें सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष और मुख्य प्रत्यक्ष भेद किये। तथा इन्द्रिय और मनकी सहायतासे होनेवाले मतिज्ञानको सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष नाम देकर प्रत्यक्षके अन्तर्गत सम्मिलित कर दिया। इस परिवर्तनसे प्राचीन परम्पराको भी क्षति नहीं पहुँची और विपक्षियोंको भी क्षोद-क्षेम करनेका स्थान नहीं रहा । क्योंकि प्राचीन परम्परा इन्द्रिय सापेक्ष ज्ञानको परोक्ष कहती थी और अन्य दार्शनिक उसे प्रत्यक्ष कहते थे। किन्तु उसे सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष नाम दे देनेसे मूल आगमिक दृष्टिका भी घात नहीं हुआ क्योंकि सांव्यवहारिकका अर्थ होता है-पारमार्थिक नहीं, अर्थात् व्यावहारिक रूपसे इन्द्रियज्ञान प्रत्यक्ष है, परमार्थसे तो वह परोक्ष ही है । तथा विपक्षी दार्शनिकोंको भी उससे सन्तोष हो गया। असन्तोष था उसके परोक्ष नामसे, सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष नाम दे देनेसे वह समाप्त हो गया। . परसापेक्ष ज्ञानको प्रत्यक्षकी परिधिमें सम्मिलित कर लेनेपर प्रत्यक्षकी परिभाषामें परिवर्तन करना आवश्यक हो गया । अतः पुरानो आगमिक परिभाषाके स्थानमें संक्षिप्त और स्पष्ट परिभाषा निर्धारित को गयो । स्पष्ट ज्ञानको प्रत्यक्ष कहते हैं। मतिको सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष मान लेनेपर उसके सहयोगी स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध ज्ञान भी सांव्यवहारिक प्रत्यक्षमें सम्मिलित कर लिये गये। किन्तु इन सहयोगी ज्ञानोंमें मनकी प्रधानता होनेके कारण सांव्यवहारिक प्रत्यक्षके १. 'प्रत्यक्षं विशदं शानं मुख्यसंव्यवहारतः। परोक्षं शेषविज्ञानं प्रमाण इति __ संग्रहः ॥३॥' -लघीयस्त्रय | . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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