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पृष्ठभूमि मलिन किये गये न्यायको सम्यग्ज्ञान-रूपी जलसे किसी तरह प्रक्षालित करके निर्मल करते हैं।
अकलंक देवके समयमें भारतीय न्यायशास्त्र बहुत उन्नत हो चुका था। बौद्ध दर्शनके पिता दिङ्नागके पश्चात् उनके सुयोग्य उत्तराधिकारी धर्मकीतिको कोतिसे अन्य दार्शनिकोंको कीर्ति धूमिल हो रही थी। प्रख्यात मीमांसक कुमारिल भटने मीमांसा दर्शनके शाबरभाष्यपर श्लोकवातिककी रचना करके समन्तभद्रके द्वारा की गयी सर्वज्ञ की सिद्धिको आड़े हाथों लिया था। प्रख्यात शाब्दिक भर्तहरिने वाक्यपदीयकी रचना करके शब्दाद्वैतको प्रतिष्ठा बढ़ायी थी । न्यायदर्शनके सूत्रोंपर उद्योतकारने न्यायवार्तिकको रचना करके न्यायदर्शनकी गरिमामें चार चांद लगा दिये थे। शास्त्रार्यों को धूम थी। उनमें युक्तियोंके साथ छल, जाति और निग्रहस्थान-जैसे शस्त्रोंका भी प्रयोग किया जाता था। उनके संचालनमें निपुण हुए बिना विजय पाना दुर्लभ था। ऐसी स्थितिमें अकलंक देवको उत्तराधिकारके रूपमें जो कुछ सामग्री प्राप्त हुई, वह अपर्याप्त थी। अतः न्यायके शोधन और अन्यायके 'परिमार्जनके लिए अनेकान्तवाद और अहिंसावादका अवलम्बन लेते हुए सात्विक उपायोंको परिपुष्ट करनेकी आवश्यकता थी। उसीकी पूर्ति अकलंकदेवने की।
न्यायशास्त्रका दूसरा नाम प्रमाणशास्त्र है। अतः सबसे प्रथम अकलंक देवने जैन आगमिक प्रमाणपद्धतिको प्रचलित तार्किक पद्धतिके अनुरूप व्यवस्थित किया । जैन आगमिक पद्धतिमें प्रमाणके दो मूल भेद हैं--प्रत्यक्ष और परोक्ष । इन्द्रिय और मन आदिकी सहायताके बिना जो ज्ञान आत्मासे होता है, उसे प्रत्यक्ष कहते हैं, और जो ज्ञान उनकी सहायतासे होता है उसे परोक्ष कहते हैं । प्रत्यक्षके तीन भेद हैं-अवधि, मनःपर्यय और केवल । इनमें से प्रारम्भके दो ज्ञान मात्र रूपी पदार्थों को जानते हैं, इसलिए उन्हें विकल प्रत्यक्ष कहते हैं । किन्तु केवलज्ञान त्रिकाल और त्रिलोकवर्ती प्रत्येक द्रव्य और प्रत्येक पर्यायको प्रत्यक्ष जानता है, इसलिए उसे सकल प्रत्यक्ष कहते हैं । परोक्षके दो भेद हैं-मति
और श्रुत । इन्द्रिय और मनकी सहायतासे होनेवाले प्राथमिक ज्ञानको मतिज्ञान कहते हैं । मतिज्ञानपूर्वक होनेवाले विशेष ज्ञानको श्रुतज्ञान कहते हैं । जैनधर्ममें प्रमाणपद्धतिको यह प्राचीन परम्परा है। इसमें मतिज्ञानको स्मृति, संज्ञा, चिन्ता, अभिनिबोध भी कहते थे। अन्यदर्शनोंमें प्रत्यक्ष , अनुमान, शाब्द, उपमान और अर्थापत्ति नामके प्रमाण माने जाते थे। उनमें परोक्ष नामका कोई प्रमाण १. 'सण्णा सदी मदी चिंता चेदि ॥४१॥-षट खं०, पु० १३, पृ० २४४ ।
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