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________________ जैन न्याय भट्ट अकलंक -- जैन न्यायको इस स्थितिमें जैनपरम्परामें अकलंक जैसे जैन न्यायके प्रस्थापक आचार्यका जन्म हुआ। उन्होंने सोचा कि जैनपरम्पराके सभी तत्त्वों का निरूपण तार्किक शैलीसे संस्कृत भाषा में वैसा ही होना चाहिए जैसा ब्राह्मण और बौद्ध परम्परामें बहुत पहले हो चुका है । इस विचारसे प्रेरित होकर उन्होंने इतर दर्शनोंका विशेषतया बौद्ध दर्शनका अध्ययन करनेका संकल्प किया और आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत लेकर विद्याध्ययन में जुट गये । वह समय भारतीय दर्शनका मध्याह्न काल था । बौद्ध परम्परामें दिङ्नागके पश्चात् धर्मकीर्ति जैसे नखर तार्किकोंकी तूती बोलती थी तो ब्राह्मणपरम्परा में कुमारिल-जैसे उद्भट विद्वानोंके गर्जनकी प्रतिध्वनि मन्द नहीं हुई थी । दोनों ही महाविद्वानोंने अपनीअपनी कृतियोंमें जैनपरम्पराके मन्तव्यों की खिल्ली उड़ायो थी और समन्तभद्र - जैसे तार्किकका खण्डन किया था । उस सबको पढ़कर अकलंक देवने न्याय प्रमाण-विषयक अनेक प्रकरण रचे जिनमें दिङ्नाग और धर्मकोर्ति-जैसे बौद्धतार्किकोंकी और उद्योतकर, भर्तृहरि कुमारिल-जैसे ब्राह्मण तार्किकोंकी उक्तियोंका निरसन करते हुए जैन मन्तव्योंकी स्थापना तार्किक शैलीसे की है। श्री पं० 'सुखलालजी के शब्दों में 'अकलंकने न्याय प्रमाण शास्त्रका जैनपरम्परामें जो प्राथमिक निर्माण किया, जो परिभाषाएँ, जो लक्षण व परीक्षण किया, जो प्रमाण, प्रमेय आदिका वर्गीकरण किया और परार्थानुमान तथा वाद, कथा आदि परमत प्रसिद्ध वस्तुओंके सम्बन्ध में जो जैन प्रणाली स्थिर की, संक्षेपमें अबतक में जैन परम्परामें नहीं, पर अन्य परम्पराओं में प्रसिद्ध ऐसे तर्क शास्त्र के अनेक पदार्थोंको जैन दृष्टिसे जैन परम्परा में जो सात्मीभाव किया तथा आगमसिद्ध अपने मन्तव्यों को जिस तरह दार्शनिकों के सामने रखने योग्य बनाया, वह सब छोटे-छोटे ग्रन्थोंमें विद्यमान उनके असाधारण व्यक्तित्वका तथा न्याय प्रमाण स्थापना युगका द्योतक है ।' २६ अपने न्यायविनिश्चयके प्रारम्भमें अकलंक देवने लिखा हैबालानां हितकामिनामतिमहापापैः पुरोपार्जितैः माहात्म्यात्तमसः स्वयं कलिबलात् प्रायो गुणद्वेषिभिः । न्यायोऽयं मलिनीकृतः कथमपि प्रक्षाल्य नेनीयते सम्यग्ज्ञानजलैर्वचोभिरमलं तत्रानुकम्पापरैः ॥ कल्याणके इच्छुक अज्ञ जनोंके पूर्वोपार्जित पापके उदयसे गुणद्वेषी एकान्त'वादियोंने न्यायशास्त्रको मलिन कर दिया है । करुणाबुद्धिसे प्रेरित होकर हम उस १. दर्शन और चिन्तन, पृ० ३६५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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