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पृष्ठभूमि मल्लवादी और सुमति-श्री मल दीने सिद्धसेनके ग्रन्थ सन्मति तर्कपर टीका लिखी थी, ऐसा निर्देश आचार्य हरिभद्र ने किया है। श्री मल्लवादीद्वारा रचित ग्रन्थोंमें से एक मात्र नयचक्र ग्रन्थ उपलब्ध है। वह भी मूल रूपमें नहीं, किन्तु उसपर सिंहसूरि गणि रचित ( विक्रमकी छठी, सातवीं शताब्दी) टीका मिलती है।
बौद्ध दार्शनिक शान्तरक्षित ( विक्रमकी आठवीं शती ) ने अपने तत्त्वसंग्रहके अन्तर्गत स्याद्वाद परीक्षा ( कारिका १२६२ आदि) और बहिरर्थपरीक्षा (कारिका १९४० आदि ) में सुमति नामक दिगम्बराचार्यके मतकी आलोचना की है। उसी सुमतिने सिद्धसेनके सन्मति तर्कपर विवृति लिखी थी, ऐसा स्पष्ट उल्लेख मिलता है । यह उल्लेख वादिराजसूरिके पार्श्वनाथ चरित्रके प्रारम्भमें है और धवणबेलगोलकी मल्लिषेण प्रशस्तिमें. उन्हें सुमति सप्तकका रचयिता कहा है। सुमतिका दूसरा नाम सन्मति भी था। इनकी कोई कृति उपलब्ध नहीं है । जैन न्यायके विकासमें इन दोनों टीकाकारोंका योग अवश्य ही रहा है, पर क्या, कितना रहा, यह बतलानेका कोई साधन नहीं है। ____ इस प्रकार आचार्य कुन्दकुन्दके पश्चात् आचार्य सुमति तक जैनपरम्परामें जो दार्शनिक तत्त्वज्ञानी हुए उन्होंने प्रमाणकी रूपरेखा आगमिक शैलीसे निर्धारित करते हुए अनेकान्तवाद या स्याद्वाद और उसके फलितार्थ सप्तभंगीवाद और नयवादके स्थापन और विवेचनकी ओर ही मुख्य रूपसे ध्यान दिया। और इस तरह जैनदर्शनको अनेकान्त दर्शनके रूपमें प्रतिष्ठित कर दिया। इसका मुख्य श्रेय आचार्य समन्तभद्रको है, उन्होंने उक्त विषयोंके सम्बन्धमें इतना विवेचन किया कि उसके पश्चात् उसमें कोई एकदम नयी चर्चा प्रविष्ट नहीं हो सकी। न्यायावतार-जैसा जैन न्यायकी व्यवस्थाको दर्शानेवाला एक-आध ग्रन्थ रचे जानेपर भी इस युगमें जैन न्यायकी न तो न्यायशास्त्रके रूपमें पूरी व्यवस्था हुई और न उसविषयक साहित्यका ही निर्माण हुआ। यद्यपि न्याय शास्त्रके एक-एक अंगसे सम्बद्ध जल्पनिर्णय और विलक्षणक दर्शन-जैसे ग्रन्थ रचे गये और उनसे जैन न्यायको पूर्व भूमिकाका निर्माण हुआ, किन्तु दिङ्नागके न्याय प्रवेश और प्रमाण समुच्चय-जैसे तथा धर्मकीतिके न्यायबिन्दु, प्रमाणवार्तिक-जैसे ग्रन्थ नहीं रचे गये और न जैन न्यायको पूरी रूपरेखा ही निर्धारित हो सकी।
१. उक्तं च वादिमुख्येन श्रीमल्लवादिना सम्मतौ-अनेकान्तजयपताका पृ० ४७ । २. 'नमः सन्मतये तस्मै भवकूपनिपातिनाम् । सन्मतिर्विवृता येन सुखधामप्रवेशिनी ॥ ३. 'सुमतिदेवममुं स्तुतं येन वः सुमतिसप्तकमाप्ततया कृतम् । परिहृतापदतत्स्वपदाथिनां
सुमतिकोटिविवर्तिभवार्तिहृत् ॥ जै०शि० सं०, भाग १, पृ० १०३ ।
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