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जैन न्याय
सीमन्धरभट्टारकस्य अशेषार्थसाक्षात्कारिणः तीर्थकरस्य स्यात् तेन हि प्रथम 'अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् । नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम्' इत्येतत् कृतम् । कथमिदमवगम्यते चेत् ? पात्रकेसरिणा विलक्षणकदर्थनं कृतमिति कथमवगम्यते इति समानम् । आचार्यप्रसिद्धः इत्यादि समानमुमयत्र । कथा च महती सुप्रसिद्धा ।" ( सि० वि०, पृ० ३७१-३७२)।
इस व्याख्यासे ज्ञात होता है कि 'पद' शब्दसे टीकाकारने अन्यथानुपपन्नत्व आदि श्लोकको ग्रहण किया है और उसके विशेषण 'अमलालीढ' का अर्थ गणधरोंके द्वारा आस्वादित किया है। तथा 'स्वामिनः' शब्दके अर्थके सम्बन्धमें उत्तरप्रत्युत्तर देते हुए लिखा है-'स्वामी शब्दसे कोई-कोई पात्रकेसरीका ग्रहण करते हैं। उनका कहना है कि पात्रकेसरीने विलक्षण कदर्थन नामक उत्तरभाष्यको रचना की थी और यह हेतुलक्षण उसी ग्रन्थका है। यदि ऐसा है तो इस हेतु. लक्षणको सर्वदर्शी भगवान् सीमन्धर स्वामीका मानना चाहिए क्योंकि पहले उन्होंने ही 'अन्यथानुपपन्नत्व' आदि वाक्यकी रचना को थो। यदि कहा जाये कि इसके जानने में क्या साधन है तो पात्रकेसरीने विलक्षणकदर्थनकी रचना की थी, इसके जानने में क्या साधन है ? यदि कहा जाये कि यह बात आचार्यपरम्परासे प्रसिद्ध है तो उक्त श्लोकके सीमन्धर स्वामीरचित होने में भी प्रसिद्धि है ही। तथा इसके सम्बन्धमें कथा भी सुप्रसिद्ध है । ""आदि ।
___ उक्त चर्चासे स्पष्ट है कि पात्रकेसरी स्वामीने त्रिलक्षणकदर्थन नामक ग्रन्थ रचा था। और वह ग्रन्थ अनुमान प्रमाणकी चर्चासे सम्बद्ध था। और बौद्ध दार्शनिक शान्तरक्षितके सामने उपस्थित था क्योंकि उन्होंने अपने तत्त्वसंग्रहके अनुमान परीक्षा नामक प्रकरण में उससे कारिकाएँ उद्धृत करके उनकी आलोचना को है। अकलंकदेव भी शान्तरक्षितके पूर्वसमकालीन थे। अतः उन्होंने भी उस ग्रन्थको अवश्य देखा होगा। यह बात सिद्धिविनिश्चयके उक्त श्लोकमें आगत 'अमलालीढं पदं स्वामिनः' से ज्ञात होती है । अतः न्यायशास्त्रके मुख्य अंग हेतु आदिके लक्षणका उपपादन आदि अवश्य ही पात्रस्वामीकी देन है । श्वेताम्बरपरम्पराके ग्रन्थकारोंने भी पात्रस्वामीके ही अन्यथानुपपन्नत्वं आदि श्लोकको ग्रहण किया है । न्यायावतारके हेतु लक्षणको किसीने भी उद्धृत नहीं किया । सन्मतिटीका तथा स्याद्वादरत्नाकर में तो उसे पात्रस्वामीके नामसे उद्धृत किया है।
“अन्यथेत्यादिना पात्रस्वामिनमाशङ्कते-नान्यथानुपपन्नत्व"" (सन्मति टी० पृ० ५६० )। तदुक्तं पात्रस्वामिना-अन्यथानुपपनत्वं ।" (स्या० रत्ना०, पृ० ५२.)।
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