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________________ पृष्ठभूमि २३ उस पात्रकेसरी गुरुको उत्कृष्ट महिमा है, जिसकी भक्तिसे पद्मावती देवी त्रिलक्षण कदर्थन करनेके लिए सहायक हुई थी। बौद्ध दार्शनिक हेतुका लक्षण त्रैरूप्य मानते हैं । आचार्य वसुबन्धुने भी रूप्यका निर्देश किया है, किन्तु उसका विकास करनेका श्रेय दिङ्नागको है। इसीसे वाचस्पति मिश्रने उसे दिङ्नागका सिद्धान्त कहा है। बौद्ध दार्शनिकोंके इसी रूप्य या त्रिलक्षणका कदर्थन ( खण्डन ) करनेके लिए पात्रकेसरी स्वामीने विलक्षण कदर्थन नामके शास्त्रकी रचना की थी। अतः पात्रकेसरी दिङ नाग ( ईसाकी पांचवीं शताब्दी ) के पश्चात होने चाहिए। त्रिलक्षणका कदर्थन करनेवाला उनका निम्नलिखित श्लोक प्रसिद्ध है "अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् । नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ॥" ___ बौद्ध दार्शनिक शान्तरक्षित ( विक्रमकी आठवीं शताब्दी ) ने अपने तत्त्व संग्रहमें अनुमान परीक्षा नामक प्रकरणमें पात्रस्वामीके मतकी आलोचना करते हुए कुछ कारिकाएँ पूर्वपक्ष रूपसे दी है उनमें उक्त श्लोक भी है। उसकी क्रमिक संख्या १३६९ है। उक्त श्लोक अकलंकदेवके न्यायविनिश्चयके अनुमान प्रस्ताव नामक द्वितीय परिच्छेदमें भी आता है। न्यायविनिश्चयके टीकाकार वादिराजसूरिने इस श्लोककी उत्थानिकामें लिखा है___"तदेवं पक्षधर्मत्वादिकमन्तरेणापि अन्यथानुपपत्तिबलेन हेतोगर्भकत्वं तत्र तत्र स्थाने प्रतिपाद्य""भगवत्सीमन्धरस्वामितीर्थकरदेवसमवसरणाद् गणधरदेवप्रसादापादितं देव्या पद्मावत्या यदानीय पात्रकेसरिस्वामिने समर्पितमन्यथानुपपत्तिवार्तिकं तदाह-" 'उक्त प्रकारसे पक्षधर्मत्व आदिके बिना भी अन्यथानुपपत्ति के बलसे उस-उस स्थानमें हेतुको गमक बतलाकर, भगवान सीमन्धर स्वामीके समवसरणसे गणधर देवके प्रसादसे प्राप्त करके पद्मावतीने जो वार्तिक पात्रकेसरी स्वामीको अर्पित किया था उसे कहते हैं। अकलंकदेवने अपने सिद्धिविनिश्चयके हेतुलक्षणसिद्धि नामक छठे प्रस्तावके प्रथम पद्यके द्वितीय चरणमें लिखा है-"प्रायो नालमलं प्रबोद्धमलालीढं पदं स्वामिनः ।" इसके 'अमलालीढं पदं स्वामिनः'का व्याख्यान करते हुए टीकाकार अनन्तवीर्यने लिखा है "अत्राह-अमलालीढम् अमलैः गणधरप्रभृतिभिः आलोढम् आस्वादितम् । "कस्य तत् ? इत्यत्राह-स्वामिनः पात्रकेसरिण इत्येके । कुत एतत् ? तेन तद्विषय त्रिलक्षणकदथनम् उत्तरभाष्यं यतः कृतमिति चेत् ; नन्वेवं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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