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________________ जैन न्याय २८० ) में श्रीदत्तको ६३ वादियोंका जेता बतलाते हुए उनके जल्पनिर्णय नामक ग्रन्थका निर्देश किया है "द्विप्रकारं जगौ जल्पं तत्त्वप्रातिमगोचरम् । निषष्टे दिनां जेता श्रीदत्तो जल्पनिर्णये ॥४८॥" अक्षपाद गौतमके न्यायसूत्रमें जिन सोलह पदार्थोके तत्त्वज्ञानसे मोक्ष माना गया है उनमें वाद, जल्प और वितण्डा भी हैं । वादी और प्रतिवादीके मध्य में जो शास्त्रार्थ होता है उसे वाद कहते हैं । जल्प और वितण्डा भी उसीके प्रकार है, जो नैयायिकोंकी दृष्टिसे कुछ भेदको लिये हुए हैं। श्रीदत्त आचार्यने उनमें से जल्पका निर्णय करनेके लिए जल्पनिर्णय नामक गन्थ रचा था। श्रीदत्त बड़े प्रकाण्ड प्रतिवादी थे। उन्होंने वादमें त्रेसठ वादियोंको जीता था। अतः निश्चय ही वह वादशास्त्रके पूर्ण पण्डित थे। और वादशास्त्रपर ग्रन्थ-रचना करते हुए उन्होंने वादमें उपयोगी हेतु, हेत्वाभास आदिको चर्चा न की हो, ऐसा सम्भव प्रतीत नहीं होता। किन्तु उनकी वह महत्त्वपूर्ण रचना आज अनुपलब्ध है इस लिए उसके सम्बन्धमें कुछ कहना शक्य नहीं है। किन्तु आचार्य विद्यानन्दके सम्मुख उसका ग्रन्थ अवश्य वर्तमान प्रतीत होता है। श्रीदत्त अकलंकदेवसे पहले हुए हैं, यह तो तत्त्वार्थवातिकमें उनके नामोल्लेखसे स्पष्ट ही है। सिद्धसेनसे पूर्व उनका नामोल्लेख होनेसे यह भी सम्भव है कि वह सिद्धसेनसे पहले हए हों। जो कुछ हो किन्तु इतना निश्चित प्रतीत होता है कि जैनन्यायके निर्माणमें उनको भी देन अवश्य रही है। स्वामी पात्रकेसरी-जिनसेनाचार्यने (विक्रमको नवमो शतो) अपने महापुराणके प्रारम्भमें पात्रकेसरी नामके एक आचार्यका स्मरण किया है । तथा श्रवणबेलगोलाके चन्द्रगिरिपर्वतपर अंकित एक शिला लेखमें लिखा है "महिमा स पात्रकेसरिगुरोः परं भवति यस्य मक्त्यासीत् । पद्मावती सहाया त्रिलक्षणकदर्थनं कर्तुम् ॥” । १ अपने महापुराणके प्रारम्भमें आचार्य जिनसेनके सिद्धसेन और समन्तभद्रके पश्चात श्रीदत्तको नमस्कार करते हुए प्रवादिरूपी गौंका भेदन करने में सिंहके तुल्य बतलाया है। यथा-'श्रीदत्ताय नमस्तस्मै तप:श्रीदीप्तमूर्तये। कण्ठीरवायितं येन प्रवादीभप्रभेदने ॥४॥प्रथम पर्व। २. भट्टाकलंकश्रीपालपात्रकेसरिणां गुणाः। विदुषां हृदयारूढा हारायन्तेऽतिनिर्मलाः ॥५३॥"-म० पु०, प्र० पर्व । ३. जैनशि० सं०, भाग १, पृ० १०३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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