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________________ पृष्ठभूमि शब्द "मानं द्विविधं मेयद्वैविध्यात् ।" (प्र० वा० २।१ ) का बलात् स्मरण होता है। तथा छठो कारिकाके पूर्वार्ध “न प्रत्यक्षमपि भ्रान्तं प्रमाणत्वविनिश्चयात्" को देखते ही धर्मकोतिके प्रमाणविनिश्चय नामक ग्रन्थकी स्मृति स्वभावतः हो आती है। अतः धर्मकीर्तिके न्यायविन्दुके साथके साम्य तथा प्रमाणके लक्षणमें आगत बाधवजित पदसे तथा अन्य भी कुछ संकेतोंसे न्यायावतार धर्मकीर्ति और कुमारिलके पश्चात् रचा गया प्रतीत होता है और इसलिए यह उन सिद्धसेनकी कृति नहीं हो सकता, जो पूज्यपाद देवनन्दिके पूर्ववर्ती हैं । .. न्यायावतार आचार्य समन्तभद्रकी कृतियोंका भी ऋणी है। इसकी आठवीं कारिकामें शाब्द प्रमाणका लक्षण इस प्रकार किया है "दृष्टेष्टाव्याहताद्वाक्यात् परमार्थाभिधायिनः । तस्वग्राहितयोत्पन्नं मानं शाब्दं प्रकीर्तितम् ॥८॥" इसोके पश्चात् शास्त्रका लक्षण किया है "आप्तोपज्ञमनुल्लंध्यमदृष्टेष्टविरोधकम् । तत्वोपदेशकृत्सा शास्त्रं कापभघट्टनम् ॥" [ रत्नकरण्ड श्रावकाचार श्लोक ९] पहली कारिकाके 'दृष्टेष्टाव्याहताद्वाक्यात्' तथा 'तत्त्वग्राहि' पद और दूसरी कारिकाके 'अदृष्टेष्टविरोधकम्' और 'तत्त्वोपदेशकृत्' पद समानार्थक हैं । 'परमार्थाभिधायिनः आप्तोपज्ञम्' में भी बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव है। दूसरी कारिका समन्तभद्रकृत रत्नकरण्डश्रावकाचार की है। उसमें देव गुरु शास्त्रका लक्षण करते हुए शास्त्रके लक्षणके रूपमें उक्त कारिका है। ऐसा प्रतीत होता है कि न्यायावतारकी आठवीं कारिका उसीके आधारपर रची गयी है और प्रमाण रूपसे नौंवी कारिका उपस्थित की गयी है। अन्यथा शाब्द प्रमाणका लक्षण कहकर शास्त्रका लक्षण कहनेका कोई तुक नहीं है। इसी तरह न्यायावतारकी कारिका २८ पर भी समन्तभद्रके आप्तमीमांसाकी कारिका १०२ की छाया प्रतीत होती है। फिर भी यह सम्भव है कि जैन परम्परामें न्यायका अवतरण करनेका श्रेय इसी ग्रन्थको हो जैसा कि इसके नामसे व्यक्त होता है। आचाय श्रीदत्त-अकलंकदेवने अपने तत्त्वार्थवातिक ( १-१३-१ ) में इति शब्दका अर्थ शब्दप्रादुर्भाव करते हुए 'श्रीदत्तम् इति, सिद्धसेनमिति' उदाहरण दिया है। जिससे प्रकट होता है कि सिद्धसेनसे सम्भवतया पहले श्रीदत्त नामके कोई आचार्य हुए हैं। स्वामी विद्यानन्दने अपने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक (पृ० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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