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जैन न्याय
"प्रमाणं स्वपरामासि ज्ञानं बाधविवर्जितम् " प्रत्यक्षं च परोक्षं च द्विधा मेयविनिश्चयात् ॥ १ ॥
अर्थात् स्व और परको जाननेवाले बाधारहित ज्ञानको प्रमाण कहते हैं । प्रमेयके दो प्रकार होनेसे प्रमाण भी दो प्रकारका है - एक प्रत्यक्ष और दूसरा -परोक्ष |
नीचे लिखा श्लोक कुमारिलकर्तृक माना जाता है"तत्रापूर्वार्थविज्ञानं निश्चितं बाधवर्जितम् ।
अदुष्टकारणारब्धं प्रमाणं लोकसम्मतम् ॥”
इसमें भी 'बाघवजित' पद आया है। पं० सुखलालजी ने प्रमाणमीमांसा के अपने भाषा टिप्पण ( पृ० ५१ ) में लिखा है - ' सिद्धसेन दिवाकरकी कृति रूपसे माने जानेवाले न्यायावतार में जैन परम्परानुसारी प्रमाणलक्षण में जो 'बाघ विवर्जित' पद है वह अक्षपादके ( न्याय सू० १-१-४ ) प्रत्यक्ष लक्षणगत अव्यभिचारी पदका प्रतिबिम्ब है या कुमारिलकर्तृक समझे जानेवाले 'तत्रापूर्वार्थविज्ञानं प्रमाणं बाधवजितम्' लक्षणगत 'बाधवजित' पदकी अनुकृति है या धर्मकीर्तीय ( न्यायवि० १.४) अभ्रान्त पदका रूपान्तर है या स्वयं दिवाकरका मौलिक उद्भावन है, यह एक विचारणीय प्रश्न है।' इस तरह पण्डितजीने उसे विचारणीय प्रश्न कहकर छोड़ दिया है । किन्तु आगे न्यायावतारकी कारिका ५ और ६ में अनुमान और प्रत्यक्षके लक्षण में 'अभ्रान्त' पद है जो स्पष्ट ही धर्मकीर्तिके प्रत्यक्ष के लक्षण "प्रत्यक्षं कल्पनापोढमभ्रान्तम् " ( न्या० वि० ४ ) का ऋणी प्रतीत होता है । इस सत्यको स्वीकार करते हुए भी पण्डितजी शायद इसीलिए अस्वीकार करते हैं कि सन्मतितर्क के कर्ता सिद्धसेन दिवाकर धर्मकीर्ति से पहले हुए हैं और न्यायावतारको उन्हींकी कृति माना जाता है । वह लिखते हैं 'धर्मकीर्ति के समग्र हेतु बिन्दुकी तुलना की जा सके ऐसी सिद्धसेनकी कोई कृति इस समय हमारे सामने नहीं है परन्तु उनके न्यायबिन्दुके साथ आद्यन्त तुलना की जा सके ऐसी एक कृति तो सौभाग्य से बची है और वह है न्यायावतार | न्यायबिन्दुमें प्रमाण सामान्यकी चर्चा होनेपर भी उसमें अनुमानकी और खास करके परार्थ अनुमानकी ही चर्चा मुख्य और विस्तारसे है । न्यायावतार में भी वही वस्तु है ।' न्यायबिन्दु और न्यायावतार में जो वस्तुसाम्य है, वह ऐसा नहीं है कि उसपरसे केवल इतना ही अनुमान किया जा सके कि दोनोंके सामने अमुक-अमुक परम्परा थी । वस्तुसाम्यके साथ शब्दसाम्य भी तो उल्लेखनीय है । न्यायाव - तारकी उक्त प्रथम कारिकाके उत्तरार्धको पढ़ते ही धर्मकीर्तिको प्रमाणवार्तिक के
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