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पृष्ठभूमि
आदि अनेक वादोंकी चर्चा करके अन्त में अनेकान्त दृष्टिसे अपना मन्तव्य स्थापित किया है उसी प्रकार सिद्धसेनने भी सामान्यवाद, विशेषवाद, अस्तित्ववाद, नास्तित्ववाद, आत्मस्वरूपवाद, द्रव्य और गुणका भेदाभेदवाद, तर्क और आगमवाद, कार्य और कारणका भेदाभेदवाद, काल आदि पाँच कारणवाद, आत्माके विषय में नास्तित्व आदि छह और अस्तित्व आदि छह वाद, इत्यादि अनेक विषयोंका निरूपण करते हुए उनके गुण-दोष बतलाये हैं । और एकान्तवादकी पराजेयता और अनेकान्तवादकी अजेयता सूचित की है ।
इस काण्ड में सिद्धसेनने पर्यायार्थिक नयको भाँति गुणार्थिक नयको भिन्न मानने की जो चर्चा उठायी है ( ३, ८-१५ ) वह उनके पहलेके साहित्यमें दृष्टिगोचर नहीं होती । अकलंकदेवने तत्त्वार्थवार्तिकमें और विद्यानन्दने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकमें भी उस चर्चाको उठाया है, जो अवश्य ही सन्मतितर्ककी देन है ।
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इसी काण्ड में नयवादकी चर्चा करते हुए कहा है कि 'जितने वचनोंके मार्ग हैं, उतने ही नयवाद हैं; और जितने नयवाद हैं, उतने ही परसमय हैं।' इस तरह जब प्रत्येक परसमय नयवाद है, तो किस नयमें किस परसमयका समावेश होता है, यह शंका होना स्वाभाविक है । उसके समाधान के लिए सिद्धसेनने कहा है कि जो सांख्यदर्शन है, वह द्रव्यास्तिकका वक्तव्य है, और बौद्ध दर्शन परिशुद्ध पर्यायार्थिक नयका विकल्प है तथा कणादने यद्यपि दोनों नयोंसे अपने दर्शन की प्ररूपणा की है, फिर भी वह प्रमाण नहीं है; क्योंकि दोनों नयोंके द्वारा सापेक्ष कथन न करके निरपेक्ष कथन किया गया है । ( गा० ३,४७-४९ ) । इस तरह दर्शनों की नयवाद में योजना की है । और अन्तमें जिनवचनको मिथ्या दर्शनों का समूह रूप बतलाया है । इस तरह सिद्धसेनने भी सन्मतितर्कके द्वारा अनेकान्त दृष्टिके फलितवाद सप्तभंगी और नयोंका निरूपण करके जैनन्यायको दृष्टिको परिपुष्ट किया ।
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सन्मति तर्कके अतिरिक्त बाईस बत्तोसियों को भी सिद्धसेनको कृति माना जाता है । यद्यपि इसमें विवाद भी है । इन्हीं में एक न्यायावतार भी है। जैन न्यायकी दृष्टिसे वह महत्त्वपूर्ण है । आचार्य समन्तभद्रने तो केवल न्याय शब्दका प्रयोग करके उसे स्याद्वादके साथ संयुक्त किया था, किन्तु सिद्धसेनने न्यायावतारकी रचना करके जैन दर्शन में उसका अवतरण ही कर दिया । न्यायावतार में प्रमाणकी चर्चा शुरू करके अन्तमें परार्थानुमानकी ही विस्तारसे चर्चा की है और जैन दृष्टिसे पक्ष, साध्य, हेतु, दृष्टान्त, हेत्वाभास आदिके लक्षण दिये हैं । आचार्य समन्तभद्रने स्वपरावभासक ज्ञानको प्रमाण कहा था, किन्तु न्यायावतार में उसमें 'बाधविवजित' पद जोड़ दिया गया है
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