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जैन न्याय
काण्डको नय काण्ड नाम दिया है। इसमें ग्रन्थकारने मुख्य रूपसे नयवाद और सप्तभंगीवादकी चर्चा की है। प्रथम उन्होंने अनेकान्तदृष्टिकी आधारभूत सामान्यग्राही द्रव्यास्तिक और विशेषग्राही पर्यायास्तिक दृष्टिका पृथक्करण करके उनमें नयोंका विभाग किया है । तत्त्वार्थसूत्र (१-३३ ) में नय सात बतलाये हैं । किन्तु सिद्धसेनने सात नयोंको छहमें संकलित किया है। उनका मन्तव्य है कि नगम कोई स्वतन्त्र नय नहीं है, संग्रहसे एवम्भूतनय तक छह नय ही स्वतन्त्र हैं। नयनिरूपणमें यह उनकी अपनी विशेषता है। दूसरी विशेषता यह है कि द्रव्याथिक नयको मर्यादा ऋजुसूत्र नय तक थी। सिद्धसेनने उसे व्यवहार नय तक ही रखा। उनका कहना है कि ऋजुसूत्रसे लेकर सभी नय पर्यायास्तिक नयको मर्यादामें आते हैं।
नयवादकी चर्चा में सिद्धसेनने मुख्य तीन बातें कही हैं-दोनों मूल नयोंका सम्बन्ध, वस्तुके लक्षणका दोनों नयोंके द्वारा पृथक्करण और दो नयोंमें ही उसकी पूर्णता, किसी एक ही नयके स्वीकारमें बन्ध मोक्षको अनुपपत्ति । नयके कथनके बाद सिद्धसेनने सप्तभंगीवादको चर्चा करके उसकी संयोजना मूल दो नयोंमें की है । उन्होंने व्यंजन तथा अर्थ पर्यायकी स्पष्ट चर्चा करके उसमें सप्तभंगीका नियोजन किया है। उनसे पूर्वकालीन उपलब्ध साहित्यमें यह चर्चा दृष्टिगोचर नहीं होती।
दूसरे काण्डमें ज्ञान और दर्शनकी मीमांसा है। श्वेताम्बरीय आगम साहित्यमें केवलज्ञान और केवलदर्शनको उत्पत्ति क्रमसे मानी गयी है। और दिगम्बर परम्परामें इन दोनोंकी उत्पत्ति युगपत् मानी गयी है। इन दोनों मतोंके सामने सिद्धसेनने तर्कके बलपर अभेदवादको स्थापना की । उसकी स्थापना करते हुए उन्होंने कहा
"मणपज्जवणाणंतो णाणस्स य दरिसणस्स य विसेसो । केवलणाणं पुण दसण ति णाणं तिय समाणं ॥"
[सन्मतितर्क गा० २।१३] ज्ञान और दर्शनका कालभेद मनःपर्ययज्ञान तक है । परन्तु केवलज्ञानके विषयमें दर्शन और ज्ञान ये दोनों समान हैं अर्थात् एक हैं ।
इस अभेदवादपर आचार्य कुन्दकुन्दके द्वारा नियमसारमें निश्चय दृष्टिसे की गयी ज्ञान-दर्शन विषयक चर्चाका प्रभाव परिलक्षित होता है ।
अनेकान्त दृष्टिसे ज्ञेयतत्त्व कैसा होना चाहिए, इसकी चर्चा प्रधान रूपसे तीसरे काण्ड में है। जैसे समन्तभद्रने आप्तमीमांसामें सप्तभंगीके प्ररूपणके प्रसंगसे सत्-असत्, द्वैत-अद्वैत, एकत्व-पृथक्त्व, नित्यत्व-अनित्यत्व, दैव-पुरुषार्थ
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