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पृष्ठभूमि आपके मतमें अनेकान्त भी प्रमाण और नय दृष्टिसे अनेकान्त स्वरूप है। प्रमाणको अपेक्षासे अनेकान्त सिद्ध होता है और विवक्षित नयदृष्टिसे अनेकान्तमें एकान्तरूप सिद्ध होता है।
समन्तभद्रके इस कथनका विश्लेषण अकलंकदेवने अपने 'तत्त्वार्थवार्तिकमें किया है । अनेकान्त और एकान्त दोनों ही सम्यक् और मिथ्याके भेदसे दो प्रकारके होते हैं । प्रमाणके द्वारा निरूपित वस्तुके एकदेशको सयुक्ति ग्रहण करनेवाला सम्यगेकान्त है । और एक धर्मका सर्वथा अवधारण करके अन्य धर्मोका निराकरण करनेवाला मिथ्या एकान्त है। एक वस्तुमें युक्ति और आगमसे अविरुद्ध अनेक विरोधी धर्मोको ग्रहण करनेवाला सम्यगनेकान्त है तथा वस्तुको तत् अतत् आदि स्वभावसे शन्य कहकर उसमें अनेक धर्मोंकी मिथ्या कल्पना करनेवाला अर्थशून्य वचनविलास मिथ्या अनेकान्त है। सम्यग् एकान्त नय कहलाता है तथा सम्यगनेकान्त प्रमाण । यदि अनेकान्तको अनेकान्त ही माना जाये और एकान्तका लोप किया जाये तो सम्यगेकान्तके अभावमें शाखादिके अभावमें वृक्षके अभावकी तरह एकान्तोंके समुदायरूप अनेकान्तका भी अभाव हो जायेगा। और यदि एकान्त ही माना जाये तो अविनाभावी अन्य धर्मोका लोप होनेपर प्रकृत धर्मका भी लोप होनेसे सर्वलोपका प्रसंग आता है।
स्वयम्भू स्तोत्रके अन्तिम महावीर जिनस्तवनमें स्याद्वादको अनवद्य बतलाते हुए समन्तभद्रने अपने स्तवनको पूर्ण किया है
"अनवद्यः स्याद्वादस्तव दृष्टेष्टाविरोधतः स्याद्वादः । इतरो न स्याद्वादः सद्वितयविरोधान्मुनीश्वराऽस्याद्वादः ॥"
[ स्वयंभूस्तोत्र श्लो० १३८ ] हे मुनीश्वर ! 'स्यात्' शब्दपूर्वक कथनको लिये हुए आपका जो स्याद्वाद है, वह निर्दोष है, क्योंकि प्रत्यक्ष और आगमादि प्रमाणोंके साथ उसका कोई विरोध नहीं है। दूसरा जो 'स्यात्' शब्दपूर्वक कथनसे रहित सर्वथा एकान्तवाद है, वह निर्दोष नहीं है क्योंकि वह प्रत्यक्ष और आगमादि प्रमाणोंसे विरुद्ध है।
इस प्रकार समन्तभद्रने अपने स्तुतिपरक दार्शनिक प्रकरणोंके द्वारा स्याद्वादका संस्थापन, विवेचन और संवर्धन किया। और इस तरह वे स्याद्वादके जनक कहलाये।
आचार्य सिद्धसेनकी कृतियोंमें सन्मतितर्क विशेष महत्त्वपूर्ण है। इसकी भाषा प्राकृत है । यह तीन काण्डोंमें विभक्त है। इसमें एक सौ छयासठ पद्य हैं। पहले
१. तत्त्वार्थवार्तिक ११६७
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