________________
१६
जैन न्याय
"सदेकनित्यवक्तव्यास्तद्विपक्षाश्च ये नयाः । सर्वथेति प्रदुष्यन्ति पुष्यन्ति स्यादितीह ते ॥ " [ स्वयं भूस्तोत्र श्लो० १०१ ]
सत् एक, नित्य, वक्तव्य और इसके विपक्ष रूप असत् अनेक अनित्य अवक्तव्य ये जो नय हैं - वस्तुके एक-एक धर्मके ग्राही हैं, वे सर्वथा रूपमें तो अति दोषयुक्त हैं और स्यात् रूपमें पुष्टिकारक हैं । अर्थात् सर्वथा सत्, सर्वथा एक, सर्वथा नित्य, सर्वथा वक्तव्य या सर्वथा असत्, सर्वथा अनेक, सर्वथा अनित्य, सर्वथा अवक्तव्य रूपसे जो एकान्तवादी पक्ष हैं वे सब दोषयुक्त हैं, मिथ्या हैं । किन्तु यदि उनके साथ 'सर्वथा' के स्थान में स्यात् या कथञ्चित् प्रयुक्त किया जाये कि स्यात् नित्य, स्यात् अनित्य आदि, तो वे सम्यक् होनेसे वस्तु के स्वरूपके पोषक होते हैं ।
किन्तु इस प्रकारका स्याद्वाद जैन न्यायमें ही है
"
"सर्वथा नियमत्यागी यथादृष्टमपेक्षकः । स्याच्छब्दस्तावके न्याये नान्येषामात्मविद्विषाम् ॥ "
सर्वथा रूपसे कथन करनेके नियमका रखनेवाला स्यात् शब्द आप जिन देवके ही घात करनेके कारण अपने ही वैरी हैं, उन एकान्तवादियोंके न्यायमें नहीं है ।
त्यागी और यथादृष्टको अपेक्षा में न्यायमें है, दूसरे जो स्वयं अपना
[ स्वयंभू स्तोत्र श्लो० १०२ ]
इस श्लोक के पूर्वार्ध में स्याद्वादका स्वरूप बड़े सुन्दर और सरल ढंगसे बतलाया है । जो सर्वथाके नियमको नहीं मानता तथा जिस सत् असत् रूपसे वस्तु प्रतीत होती है, अपेक्षा भेदसे उसको स्वीकार करनेवाला स्याद्वाद है । जैसे द्रव्य पर्यायात्मक वस्तु द्रव्यरूपसे नित्य है और पर्यायरूपसे अनित्य है । इसी स्तोत्रका आगामी पद्य अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । अनेकान्तवादी सबको अनेकान्तात्मक मानते हैं । तब अनेकान्त भी अनेकान्तात्मक हुआ । अतः अनेकान्त है और नहीं भी हैं, ऐसा कहनेपर अनेकान्त नहीं भी है तो एकान्तवाद आ जाता है । इस आपत्तिका परिहार करते हुए स्वामी समन्तभद्रने नीचे लिखे अनुसार अनेकान्त में अनेकान्तत्व की योजना की है
Jain Education International
"अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः प्रमाणनयसाधनः । अनेकान्तः प्रमाणात्ते तदेकान्तोऽर्पितान्नयात् ॥”
[ स्वयंभूस्तोत्र श्लो० १०३ ]
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org