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________________ ३० जैन न्याय रविभद्रपादोपजीवि और दूसरे उनके ही द्वारा उल्लिखित प्राचीन व्याख्याकार । प्राचीन अनन्तवीर्यको सिद्धिविनिश्चय व्याख्या उपलब्ध नहीं है, किन्तु रविभद्रपादोपजीवि अनन्तवीर्यको सिद्धिविनिश्चयटोकामें उसका उल्लेख पाया जाता है। उपलब्ध सिद्धिविनिश्चयटीकाके रचयिता अनन्तवीर्यका समय ईसाको दशवीं शती है। इन्होंने सिद्धिविनिश्चयपर टीका रचकर उसके मूल अभिप्रायको स्पष्ट और पल्लवित करने में अपनी बहुमुखी प्रतिभाका उपयोग किया। और उससे अकलंकके अन्य टीकाकार प्रभाचन्द्र' और वादिरोजको अपनी टीकाओंके लिखने में साहाय्य मिला और इस तरह जैन न्यायके विकासमें उन्होंने पूरा योगदान किया । अनन्तकीर्ति आ० अनन्तकीति रचित लघुसर्वज्ञसिद्धि और बृहत्सर्वज्ञसिद्धि नामके दो प्रकरण लघीयस्त्रयादि संग्रहमें छपे हैं। उनके अध्ययनसे प्रकट होता है कि वह एक प्रख्यात दार्शनिक थे। उन्होंने इन प्रकरणोंमें वेदोंके अपौरुषेयत्वका खण्डन करके आगमकी प्रमाणतामें सर्वज्ञ प्रणीतताको ही कारण सिद्ध किया है । इन्होंने सर्वज्ञताके पूर्वपक्षमें जो श्लोक उद्धृत किये हैं उनमें कुछ मोमांसाश्लोकवातिकके, कुछ प्रमाणवातिकके और कुछ तत्त्वसंग्रहके हैं । प्रभाचन्द्रने न्यायकुमुदचन्द्र और प्रमेयकमलमार्तण्डके सर्वज्ञसाधक प्रकरणोंमें अनन्तकीतिको बृहत्सर्वज्ञसिद्धिका शब्दपरक अनुकरण किया है। अतः जैनन्यायके इस अंगकी पूर्तिमें उनका योगदान उल्लेखनीय है। आचार्य माणिक्यनन्दि ___आचार्य माणिक्यनन्दि जैनन्यायको सूत्ररूपमें निबद्ध करनेवाले प्रथम सूत्रकार हैं । यह ईसाकी दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दीके विद्वान् थे। इनका परीक्षामुख नामक एक सूत्रग्रन्थ प्रकाशित हो चुका है। उसके वृत्तिकार अनन्तवीर्यने अपनी वृत्तिके प्रारम्भमें सूत्रकारको नमस्कार करते हुए लिखा है कि उन्होंने अकलंकदेवके वचन-समुद्रका मन्थन करके न्यायविद्यारूपी अमृतका उद्धार किया था। इस सूत्र-ग्रन्थमें छह उद्देश हैं - प्रमाण, प्रत्यक्ष, परोक्ष, विषय, फल और तदाभास। माणिक्यनन्दिसे पहले विद्यानन्दने प्रमाण का लक्षण 'स्वपर १. "स्वभ्यस्तश्च विवेचितश्च सततं सोऽनन्तवोर्योक्तितः।"-न्या० कु० च०, पृ०६०५। २. "व्यञ्जयत्यलमनन्तवीर्यवाग्दीपवतिरनिशं पदे पदे।"-न्यायवि० वि०, प्र० ___ भा०, पृ० १। ३. "अकलंकवचोम्भोधेरुदधे येन धीमता। न्यायविद्यामृतं तस्मै नमो माणिक्यनन्दिने।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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