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• जैन न्याय
अत: उसका फलित सप्तभंगीवाद भी प्रमोजनका साधक है। स्वामी समन्तभद्रने अपने आप्तमीमांसा नामक प्रकरणमें अपने समयके सदैकान्तवादी सांख्य, असदैकान्तवादी माध्यमिक, सर्वथा उभयवादी वैशेषिक और अवक्तव्यकान्तवादी बौद्धका निराकरण करके आद्य चार भंगोंका ही उपयोग किया है और शेष तीन भंगोंके उपयोगका सूचन-मात्र कर दिया है। आप्तमीमांसापर अष्टशती नामक भाष्यके रचयिता अकलंकदेवने और उनके व्याख्याकार विद्यानन्दने शेष तीन भंगोंका उपयोग करते हुए शंकरके अनिर्वचनीयवादको सदवक्तव्य बौद्धोंके अन्यापोहवादको असदवक्तव्य और योगके पदार्थवादको सदसदवक्तव्य बतलाया है और इस तरह सप्तभंगीके सात भंगोंके द्वारा दार्शनिक क्षेत्रके मन्तव्योंको संगृहीत किया है। अनेकान्तमें सप्तभंगी
शंका-एक वस्तु में प्रश्नवश प्रमाण-अविरुद्ध विधिप्रतिषेधकल्पनाको सप्तभंगी कहा है । और यह भी कहा है कि उसका उपयोग प्रत्येक वस्तुमें होता है । किन्तु अनेकान्तमें वह विधिप्रतिषेधविकल्पना घटित नहीं होती। यदि होती है तो जब यह कहा जाता है कि 'अनेकान्त नहीं है' तब एकान्तवादके दोषका अनुषंग आता है। तथा इस तरह अनेकान्तमें अनेकान्तके माननेपर अनवस्था दोषका प्रसंग भी आता है। अतः अनेकान्तमें केवल अनेकान्तके ही होने के कारण सप्तभंगी व्यापक नहीं है; क्योंकि अनेकान्तमें ही उसका उपयोग सम्भव नहीं है।
समाधान-उक्त कथन ठीक नहीं है। अनेकान्तमें भी सप्तभंगी अवतरित होती है यथा-स्यादेकान्त, स्यादनेकान्त, स्यादुभय, स्यादवक्तव्य, स्यादेकान्त अवक्तव्य, स्यादनेकान्त अवक्तव्य और स्यादेकान्त अनेकान्त अवक्तव्य ।
ये भंग प्रमाण और नयकी अपेक्षासे घटित होते हैं । एकान्त दो प्रकारका है-सम्यक् एकान्त और मिथ्या एकान्त । अनेकान्त भी दो प्रकारका है-सम्यक् अनेकान्त और मिथ्या अनेकान्त । प्रमाणके द्वारा निरूपित वस्तुके एकदेशको हेतुविशेषकी सामर्थ्यकी अपेक्षासे ग्रहण करनेवाला सम्यक् एकान्त है। और एक धर्मका सर्वथा अवधारण करके अन्य सब धर्मोंका निराकरण करनेवाला मिथ्या एकान्त है । एक वस्तुमे युवित और आगमसे अविरुद्ध प्रतिपक्षी अनेक धर्मोका
१. आप्तमीमांसा, का० ६-११ । २. कारिका १२ । ३-४. कारिका १३ । ५. तत्त्वार्थवार्तिक पृ० ३५॥
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