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श्रुतके दो उपयोग
स्वरूप प्रतिष्ठित नहीं होता। इसी तरह अभाव भी भावके बिना नहीं बनता । क्योंकि वस्तुका वस्तुत्व स्वरूपके ग्रहण और पररूपके त्यागपर ही निर्भर है । वस्तु ही परद्रव्य क्षेत्र काल और भावको अपेक्षा अवस्तु हो जाती है । समस्त स्वरूपसे शून्य कोई पृथक् अवस्तु सम्भव ही नहीं है ।
इस तरह समन्तभद्र स्वामी एवकारके प्रयोगको प्रत्येक पद या वाक्यके साथ आवश्यक मानते हैं । विद्यानन्द स्वामीने भी यही बात अपने तत्त्वर्थिश्लोकवार्तिक में लिखी है । किन्तु युक्त्यनुशासनको टीकामें उन्होंने लिखा है कि 'स्यात्कार के प्रयोग के बिना अनेकान्तात्मपनेकी सिद्धि नहीं होती, जैसे एवकार के प्रयोगके बिना सम्यक् एकान्तके अवधारणकी सिद्धि नहीं होती।' इससे तो यही सूचित होता है कि नयवाक्योंमें ही एकान्तके अवधारणकी सिद्धिके लिए एवकारका प्रयोग आवश्यक होता है । उसके बिना सम्यक् एकान्तका अवधारण नहीं हो सकता ।
यह हम पहले लिख आये हैं कि सकलादेशी प्रमाणवाक्य में एक गुणके द्वारा अखण्ड सकलवस्तुका कथन किया जाता है, और नयवाक्य में जिस धर्मका नाम लिया जाता है वही धर्म मुख्य होता है ।
एवकारवादियोंके मत से 'स्यादपत्येव जीवः' यह प्रमाणवाक्य है । इस वाक्य में 'अस्ति' गुणके द्वारा अन्य सब धर्मो में अभेद मानकर अखण्ड जीवद्रव्यका कथन किया गया है । और जब अस्ति धर्मके द्वारा केवल अस्ति धर्मका ही कथन अभीष्ट होता है तो यही वाक्य नयवाक्य हो जाता है ।
जो आचार्य 'स्यादस्ति जीव:' को प्रमाणवाक्य और 'स्यादस्त्येव जीवः' को नयवाक्य मानते हैं वे एवकारको अवधारणात्मक होनेके कारण सम्यक् एकान्तका साधक मानते हैं । शायद इसीसे प्रमाणवाक्य के साथ वे उसका प्रयोग आवश्यक नहीं मानते ।
सप्तभंगीका उपयोग
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सप्तभंगीवादका विकास दार्शनिक क्षेत्रमें हुआ अतः उसका उपयोग भी उसो क्षेत्र में होना स्वाभाविक है । स्याद्वाद चूँकि विभिन्न दृष्टिकोणोंको उचित रीति से समन्वयात्मक शैली में व्यवस्थित करके पूर्ण वस्तु स्वरूपका प्रकाशन करता है।
१. 'वाक्येऽवधारणं तावदनिष्टार्थनिवृत्तये । कर्तव्यमन्यथानुक्तसमत्वात्तस्य कुत्रचित् ॥ ५३ ।। ' - पृ० १३३ ।
२. 'न हि स्यात्कार प्रयोगमन्तरेणा नेकान्तात्मकत्वसिद्धिः, एवकारप्रयोगमन्तरेण सम्यगेकान्तावधारण सिद्धिवत्' - पृ० १०५ ।
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