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________________ ३२४ जैन न्याय की मुख्यतासे प्रयुक्त किये जाने पर जीवनगुण का ही प्रतिपादन करता है और अस्तिशब्द वक्ताको विवक्षाके अनुसार अस्तित्व गुणविशिष्ट पूर्ण वस्तुका प्रतिपादन कर सकता है । अतः धर्मोवाचक शब्द सकलादेशी ही होते है और धर्मबाचक शब्द विकलादेशी ही होते हैं ऐसी मान्यता उचित नहीं है। दोनों प्रकारके शब्दोंके द्वारा दोनोंका ही प्रतिपादन सम्भव है । अत: विवक्षाके भेदसे एक ही वाक्य सकलादेशी भी हो सकता है और विकलादेशी भी हो सकता है। द्वितीय प्रश्नपर विचार-स्वामी समन्तभद्र ने कहा है कि जो पद एवकारसे विशिष्ट होता है वह अ-स्वार्थसे स्वार्थको अलग करता है और जो पद एवकार (ही) से रहित होता है वह न कहे हुएके समान है। उदाहरणके तौरपर 'अस्ति जीवः' इस वाक्यमें 'अस्ति' और 'जीवः' ये दोनों पद एवकारसे रहित हैं। 'अस्ति' पदके साथ एवकारके न होनेसे नास्तित्वका व्यवच्छेद नहीं होता और नास्तित्वका व्यवच्छेद न होनेसे 'अस्ति'पदके द्वारा नास्तित्वका भी कथन होता है और इसलिए 'अस्ति'पदका प्रयोग न कहे हुए के समान हो जाता है। इसी तरह 'जीव' पदके साथ 'एव' शब्दका प्रयोग न होनेसे अजीवत्वका व्यवच्छेद नहीं होता और अजीवत्वका व्यवच्छेद न होने से 'जीव' पदके द्वारा अजीवका भी कथन होता है और इसलिए 'जीव' पदका प्रयोग न कहे हए के समान हो जाता है। तथा इस तरह 'अस्ति' पदके द्वारा नास्तित्वका भी और नास्तिपदके द्वारा अस्तित्वका भी कथन होनेसे तथा जीवपदके द्वारा अजीवअर्थका भी और अजीवपदके द्वारा जीव अर्थका भी कथन होनेसे अस्ति-नास्तिपदोंमें तथा जीव-अजीव पदोंमें घट और कलश-शब्दोंकी तरह एकार्थवता सिद्ध होती है। और एकार्थक होनेसे घट और कलश-शब्दोंकी तरह अस्ति और नास्तिमे-से तथा जीव और अजीव शब्दमे-से चाहे जिस-किसी एक शब्दकाप्रयोग किया जा सकता है । और चाहे जिसका प्रयोग होनेपर सम्पूर्ण वस्तुमात्र अपने प्रतियोगीसे रहित हो जाती हैं अर्थात् अस्तित्व नास्तित्वसे सर्वथा रहित हो जाता है और ऐसा होनेसे सत्ताद्वैतका प्रसंग आता है। तथा नास्तित्वका सर्वथा अभाव होनेसे सत्ताद्वैत आत्महीन हो जाता है; क्योंकि पररूपके त्यागके अभावमें स्वरूपका ग्रहण नहीं बनता । जैसे अघट रूपका त्याग किये बिना घटका १. 'यदेवकारोपहितं पदं तदस्वार्थतः स्वार्थमवच्छिनत्ति। पर्यायसामान्यविशेषसर्व पदार्थ हानिश्च विरोधिवत्स्यात् ॥ ४१ ॥ अनुक्ततुल्यं यदनेवकारं व्यावृत्य भावान्नियमद्वयेऽपि । पर्यायभावेऽन्यतरप्रयोगस्तत्सव मन्यं च्युतमात्महीनम् ॥ ४२ ॥-युक्त्यनुशासन । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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