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जैन न्याय
द्रव्यार्थिक नयको गौणतामें दूसरे भंगका प्रयोग होता है । प्रधानता और अप्रधानता शब्द के अधीन है । जो शब्दके द्वारा विवक्षित हो वह प्रधान है और जो शब्दके द्वारा नहीं कहा गया है और अर्थसे गम्यमान होता है वह अप्रधान है । तीसरे अवक्तव्य भंग में युगपद् विवक्षा होनेसे दोनों ही अप्रधान है; क्योंकि दोनोंको प्रधानरूपसे एक साथ कहनेवाला कोई शब्द नहीं है । चौथे भंगमें दोनों ही प्रधान हैं, क्योंकि क्रमसे अस्ति आदि शब्दोंके द्वारा दोनोंका ग्रहण किया गया है । इसी प्रकार शेष भंग भी आगे कहेंगे ।
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अब प्रथम भंगके प्रत्येक पदकी सार्थकता बतलाते हैं- 'जीव हो है' ऐसा अवधारण करनेपर अजीवके अभावका प्रसंग आता है । अतः अस्तित्वैकान्तवादी 'जीव है ही' ऐसा अवधारण करते हैं । और ऐसा अवधारण करनेसे जीवका सर्वथा अस्तित्व प्राप्त होता है अर्थात् सब प्रकारसे जोवका अस्तित्व प्राप्त होता है । और ऐसी स्थिति में पुद्गल आदिके अस्तित्व से भी जीवका अस्तित्व प्राप्त होता है; क्योंकि 'जीव है ही' इस शब्दसे यही अर्थ निकलता है और अर्थका बोध कराने में शब्द हो प्रमाण है ।
शंका -- अस्तित्व सामान्यको अपेक्षा जीव है, अस्तित्व - विशेषकी अपेक्षा जीव नहीं है, पुद्गल आदिका अस्तित्व तो अस्तित्वविशेष हैं, उसको अपेक्षा जीवका अस्तित्व कैसे हो सकता है ?
समाधान -- यदि आप 'अस्तित्व सामान्यसे जोव है, पुद्गलादिगत अस्तित्वविशेषसे नहीं', यह स्वीकार करते हैं तो आप स्वयं यह स्वीकार करते हैं कि अस्तित्व दो प्रकारका है- एक सामान्य अस्तित्व और दूसरा विशेष अस्तित्व । ऐसी दशा में सामान्य अस्तित्व से जीवके सत् होनेपर और विशेष अस्तित्व से जीवके असत् होनेपर 'जीव है ही' में 'ही' लगाना निष्फल ही हो जाता है । यह तो तभी सार्थक हो सकता है जब नास्तित्वका निराकरण करके सब प्रकारसे जीवका अस्तित्व माना जाये । और वैसा माननेपर पुद्गलादिके अस्तित्वरूपसे भी जीवके अस्तित्वकी प्राप्ति होती है ।
स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्व
शंका-- जो कोई भी अस्तिरूप है वह स्वद्रव्य, भावरूपसे है अन्यरूपसे नहीं; क्योंकि अन्य अप्रस्तुत है । जैसे, घट द्रव्यको अपेक्षा पार्थिवरूपसे, क्षेत्रकी अपेक्षा इस क्षेत्रसे, कालकी अपेक्षा वर्तमान कालरूप से और भावकी अपेक्षा वर्तमान रक्तत्व आदि पर्याय रूपसे अस्तिरूप है । और परद्रव्य,
१. तत्त्वार्थवार्तिक, पृ० २५४ ।
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