SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 324
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रुतके दो उपयोग ३०४ जोवः, स्यादवक्तव्य एव जीवः, स्यात् अस्ति नास्ति एव जीवः, स्यादस्ति अवक्तव्य, एव जीवः, स्यात् नास्ति अवक्तव्य एव जीवः, स्यात् अस्ति नास्ति अवक्तव्य एव जीवः। प्रथम और द्वितीय भंग-स्यादस्ति, स्यान्नास्ति ''स्यात अस्ति एव जीव:' इस वाक्यमें जोवशब्द विशेष्य होनेसे द्रव्यवाची है, अस्ति शब्द विशेषण होनेसे गुणवाची है। उन दोनोंमें विशेषण-विशेष्य सम्बन्ध बतलानेके लिए एवकार रखा गया है। अब यदि 'अस्ति एव जीवः' ( जीव सत् ही है ) इतना ही कहा जाता है तो जीवमें असत् आदि अन्य धर्मोकी निवृत्तिका प्रसंग आता है। अत: जीवमें अन्य धर्मोका भी अस्तित्व बतलानेके लिए 'स्यात्' शब्दका प्रयोग किया गया है । 'स्यात्' शब्द तिङन्तप्रतिरूपक निपात है। उसके अनेक अर्थ हैं । यहाँ विवक्षावश 'अनेकान्त' अर्थ लिया जाता है । शंका--यदि स्यात् शब्दका अर्थ अनेकान्त है तो उसीसे सब धर्मोका ग्रहण हो जानेसे शेष पदोंका प्रयोग व्यर्थ ठहरता है ? समाधान--यह दोष ठोक नहीं है; क्योंकि यद्यपि 'स्यात्' शब्दसे सामान्यरूपसे अनेकान्तका ग्रहण हो जाता है तथापि विशेषार्थीको विशेष शब्दोंका प्रयोग करना ही होता है जैसे वृक्ष शब्दसे यद्यपि सभी प्रकारके वृक्षका ग्रहण होता है फिर भी धब आदि विशेष वृक्षोंका कथन करने के लिए धव आदि शब्दोंका प्रयोग करना ही होता है। अथवा 'स्यात्' शब्द अनेकान्तका द्योतक है और जो द्योतक होता है वह किसी वाचक शब्दके निकटमें हुए बिना इष्ट अर्थका द्योतन नहीं कर सकता। अतः उसके द्वारा प्रकाश्य धर्मके आधारभूत अर्थका कथन करनेके लिए इतर शब्दोंका प्रयोग किया जाता है। शंका-तब तो 'स्यात् अस्ति एव जीवः' ( कथंचित् जीव सत् ही है ) इस सकलादेशी वाक्यसे ही जीवद्रव्यके सभी धर्मोका संग्रह हो जाता है अतः बाकी. के भंग निरर्थक हैं ? समाधान-यह दोष ठोक नहीं है। क्योंकि गौण और मुख्य विवक्षासे सभी भंगोंका प्रयोग सार्थक है। जैसे, द्रव्याथिक नयकी प्रधानता और पर्यायाथिक नयको गौणतामें पहले भंगका प्रयोग होता है। पर्यायाथिक नयको प्रधानता और १. तत्त्वार्थवार्तिक, पृ० २५३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy