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________________ ३०० जैन न्याय वस्तुके सत्त्वका प्रसंग आता है, अथवा पररूपादिचतुष्टयकी तरह स्वरूपादि. चतुष्टयको अपेक्षासे भी वस्तुके असत्त्वका प्रसंग आता है। अपेक्षाके भेदसे किसो वस्तुमें धर्मभेदकी प्रतीति होने में कोई बाधा नहीं है, जैसे बेलमें बेरकी अपेक्षा स्थूलताकी और बिजौरा नीबूको अपेक्षा सूक्ष्मताकी प्रतीति होनेमें कोई बाधा नहीं है । यदि सभी आपेक्षिक धर्मोको अवास्तव माना जायेगा तो नील, नीलतर, सुख, सुखतर आदि प्रत्यय भी अवास्तविक हो जायेंगे। किन्तु इस प्रकारके प्रत्यय यथार्थ हैं। अत: सब पदार्थ कथंचित् सदसदात्मक हैं। यदि ऐसा नहीं माना जायेगा तो सब पदार्थ सब कार्य कर सकेंगे। किन्तु सब पदार्थ सब काम नहीं कर सकते । घटको तरह वस्त्र आदिसे पानी भर लानेका काम नहीं लिया जा सकता और न वस्त्र घटादिका ज्ञान ही करा सकता है। सब पदार्थ कथंचित् उभयात्मक है। इस विषयमें दृष्टान्त भी सुलभ है । सभी वादियोंका स्वेष्ट तत्त्व स्वरूपकी अपेक्षा सत् और पररूपको अपेक्षा असत् है। इसमें कोई विवाद नहीं है । और इसीको दृष्टान्तके रूपमें लिया जा सकता है। शंका--एक वस्तुमें सत्त्व और असत्त्व धर्मका रहना युक्तिविरुद्ध है; क्योंकि जो धर्म परस्परमे विरोधी होते हैं वे एक आधारमे नहीं रह सकते, जैसे शोत और उष्ण स्पर्श । - समाधान--उक्त कथन ठीक नहीं है; क्योंकि स्वरूप और पररूपकी अपेक्षासे सत्त्व और असत्त्व धर्मके एक आधारमें रहने में कोई विरोध नहीं है। यह तो प्रतीतिसिद्ध है। जो एक साथ एक आधारमें नहीं पाये जाते उन्हीं में विरोध होता है। जिस समय वस्तु स्वरूपादिको अपेक्षासे सत् है उसी समय पररूपादिको अपेक्षासे उसमें असत्त्वको अनुपलब्धि नहीं है। जिससे उनमें शीत और उष्ण स्पर्शकी तरह सहानवस्थान ( एक साथ न रहना ) लक्षणवाला विरोध माना जाये। दूसरा विरोध है परस्परपरिहार स्थिति लक्षणवाला। यह विरोध तो एक आममें एक साथ रहनेवाले रूप रसकी तरह, एक वस्तुमे एक साथ रहनेवाले ही सत्त्व और असत्त्व धर्मों में पाया जाता है। तीसरा विरोध है वध्यधातकरूप जो सर्प और नेवलेकी तरह बलवान् और कमजोरके बीच में पाया जाता है। सत्त्व और असत्त्व तो समान बलशाली हैं, अतः उनमे यह तीसरा विरोध भी सम्भव नहीं है। अतः एक वस्तुमें अपेक्षाभेदसे सत्त्व और असत्त्व धर्मों के रहने में कोई विरोध नहीं हैं। प्रारम्भके दो भंगोंका विवेचन करके उन्हें और भी स्पष्ट करनेके लिए जीवके साथ सप्तभंगीको घटित करते हैं-स्यात् अस्ति एव जीवः, स्यात् नास्ति एव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org..
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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