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________________ श्रुतके दो उपयोग ३०७ सचेतन है तो उसे ऐसा मानना ही होगा; क्योंकि प्रतीतिका अपलाप करना शक्य नहीं है । यदि कोई स्वयं ऐसा जानते हुए भी दुराग्रहवश उसे नहीं मानता तो वह किसी भी इष्ट तत्त्वकी व्यवस्था नहीं कर सकता; क्योंकि वस्तुका वस्तुत्व स्वरूपके ग्रहण और पररूपके परिहारकी व्यवस्थापर ही अवलम्बित है । यदि वस्तुको स्वरूपकी तरह पररूपसे भी सत् माना जाता है तो चेतनके अचेतनरूप होने का प्रसंग आता है । और यदि वस्तुको पररूपकी तरह स्वरूपसे भी असत् माना जाता है तो सर्वथा शून्यवादकी आपत्ति आती है । इसी तरह यदि वस्तुको स्वद्रव्यकी तरह परद्रव्यसे भी सत् माना जाता है तो द्रव्यों के प्रतिनियम में विरोध आता है । तथा परद्रव्यकी तरह यदि स्वद्रव्यसे भी वस्तुको असत् माना जाता है तो समस्त द्रव्योंके निराश्रय होनेका प्रसंग आता है। तथा स्वक्षेत्रकी तरह परक्षेत्र से भी सत् माननेपर किसी वस्तुका कोई प्रतिनियत क्षेत्र व्यवस्थित नहीं हो सकता । परक्षेत्रको तरह स्वक्षेत्र से भी असत् माननेपर वस्तुको निःक्षेत्रताकी आपत्ति आती है अर्थात् उसका कोई क्षेत्र ही नहीं रहेगा । तथा स्वकालकी तरह परकालसे भी वस्तुको सत् माननेपर वस्तुका कोई सुनिश्चित काल नहीं हो सकेगा । परकालकी तरह स्वकालसे भी असत् माननेपर समस्त कालमें न होनेका प्रसंग आयेगा । और ऐसी स्थिति में किसी वस्तुका कोई सुनिश्चित स्वरूप व्यवस्थित न हो सकनेसे इष्ट और अनिष्ट तत्त्वकी व्यवस्था नहीं बन सकेगी । जैसे, सामान्य रूपसे जीवका स्वरूप उपयोग ( जानना - देखना ) है | तत्त्वार्थसूत्रमें जीवका लक्षण उपयोग कहा है । उपयोगसे भिन्न अनुपयोग जीवका पररूप है | अतः जोव स्वरूप ( उपयोग ) से सत् है और पररूप ( अनुपयोग ) से असत् है । इसी तरह प्रत्येक द्रव्य और पर्यायका जो स्वरूप है वह उसीकी अपेक्षा सत् है उससे भिन्न जो पररूप है उसकी अपेक्षा वह असत् है । शंका-स्वरूपकी अपेक्षा जो सत्त्व है वही पररूपकी अपेक्षा असत्त्व है । अत: वस्तु में स्वरूपकी अपेक्षा सत्त्वमें और पररूपकी अपेक्षा असत्त्वमें कोई भेद नहीं है । इसलिए पहले और दूसरे भंग में से एक भंग गतार्थ हो जानेसे दूसरा भंग बेकार हो जाता है और ऐसो स्थितिमें तीसरे आदि भंग भी नहीं बन सकते । तब सप्तभंगी कैसे बन सकती है ? समाधान – स्वरूपादि चतुष्टयकी अपेक्षा के स्वरूपमें और पररूपादि चतुष्टयकी अपेक्षा स्वरूपमें भेद है और इसलिए एक वस्तुमें इन दोनों अपेक्षाओंसे पाये जानेवाले सत्त्व और असत्त्वमें भी भेद है । यदि उन दोनोंको अभिन्न माना जाता है तो स्वरूपादिचतुष्टयकी तरह पररूपादिचतुष्टयकी अपेक्षासे भो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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