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जैन न्याय
मिलानेपर दो अवक्तव्यों और एक नास्तित्वकी, चौथेको सांतवेंके साथ मिलानेपर दो अवक्तव्यों और क्रम तथा प्रधान रूपसे एक अस्तित्व और एक नास्तित्वकी पृच्छा होनेपर भी नये प्रश्न पैदा हो सकते हैं । इसी तरह पाँचवेंको छठेके साथ मिलाने पर दो वक्तव्यों, एक अस्तित्व और एक नास्तित्वकी, पाँचवेंको सातवेंके साथ मिलाने पर दो अवक्तव्यों, दो नास्तित्वों और एक अस्तित्वकी पृच्छा होनेपर नये भंग पैदा हो सकते हैं । इस तरह और भी भंगान्तर होनेसे आप शतभंगीका निषेध कैसे कर सकते हैं ?
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अनेक समाधान - उक्त कथन युक्त नहीं है । एक वस्तुमें अनेक अस्तित्व, नास्तित्व और अनेक अवक्तव्य धर्म नहीं रह सकते । किन्तु जीववस्तुमें जीवत्वकी अपेक्षा अस्तित्व, अजोवत्वकी अपेक्षा नास्तित्व या मुक्तत्वकी अपेक्षा अस्तित्व और अमुक्तत्वकी अपेक्षा नास्तित्व इत्यादि रूपसे अनन्त स्व और परपर्यायोंको अपेक्षा अनेक अस्तित्व और अनेक नास्तित्व रह सकते हैं। क्योंकि वस्तु अनन्त धर्मात्मक है और जीवमें जीवत्व - अजीवत्वकी अपेक्षाकी तरह मुक्तत्व और अमुक्तत्वकी अपेक्षा भी अस्तित्व और नास्तित्व धर्म रह सकते हैं। क्योंकि वस्तुमें वर्तमान प्रत्येक धर्मके विधि-निषेधको लेकर पृथक्-पृथक् सप्तभंगीको अवतारणा होती है । इसलिए न तो सप्तभंगी अतिव्यापिनी है, न अव्यापिनी है और न असंभविनी है ।
शंका-सप्तभंगी के सात भंगों में से किसी एक भंगके द्वारा अनन्त धर्मात्मक वस्तुका प्रधानता या गौणतासे कथन हो जाता है, अतः शेष भंग अनर्थक क्यों नहीं हैं ?
समाधान -उनके द्वारा अन्य अन्य धर्मोंको प्रधानता और शेष धर्मोकी गौणतासे वस्तुका ज्ञान होता है । अतः शेष भंग व्यर्थ नहीं है ।
आगे सात भंगों में से प्रथम और द्वितीय भंगका समर्थन करते हैं
" सदेव सर्व को नेच्छेत् स्वरूपादि-चतुष्टयात् ।
असदेव विपर्यासान्न चेन्न व्यवतिष्टते || १५ || ” – आप्तमीमांसा |
समस्त चेतन अथवा अचेतन द्रव्य और पर्याय आदि स्वरूपादि चतुष्टय ( स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव ) की अपेक्षा सत् ही हैं और परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभावकी अपेक्षा असत् ही हैं, ऐसा कौन नहीं मानता ? अपितु लौकिक हो या परीक्षक, स्याद्वादी हो या सर्वथा एकान्तवादी, यदि वह
१. अष्टसहस्री, पृ० १३१ ।
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